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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
पुरुप को उसमें से कौन-सा गुण पहले करना चाहिए ? चारित्र बिना भी सम्यकत्व होता है। जिस तरह कृष्ण और श्रेणिक महाराजा को अविरतिपन में भी सम्यकत्व था । लेकिन जो चारित्रवान् है, उन्हें सम्यक्त्व नियमा होते है ।
[११२] चारित्र से भ्रष्ट होनेवाले को श्रेष्ठतर सम्यकत्व यकीनन धारण कर लेना चाहिए। क्योंकि द्रव्य चारित्र को न पाए हुए भी सिद्ध हो शकता है, लेकिन दर्शनगुण रहित जीव सिद्ध नहीं हो शकते ।
[११३] उत्कृष्ट चारित्र पालन करनेवाले भी किसी मिथ्यात्व के योग से संयम श्रेणी से गिर जाते है, तो सराग धर्म में रहे-सम्यग्दृष्टि उसमें से पतित हो जाए उसमें क्या ताज्जुब ?
[११४] जो मुनि की बुद्धि पाँच समिति और तीन गुप्ति युक्त है । और जो राग-द्वेष नहीं करता, उसका चारित्र शुद्ध बनता है ।
[११५] उस चारित्र की शुद्धि के लिए समिति और गुप्ति के पालनरूप कार्य में प्रयत्नपूर्वक उद्यम करो | और फिर सम्यग्दर्शन, चारित्र और ज्ञान की साधना में लेशमात्र प्रमाद मत कर...।
[११६] इस तरह चारित्रधर्म के गुण-महान फायदे मैंने संक्षिप्त में वर्णन किए है । अब समाधिमरण के गुण विशेष को एकाग्र चित्त से गुनो ।
[११७-११८] जिस तरह बेकाबू घोड़े पर बैठा हुआ अनजान पुरुष शत्रु सैन्य को परास्त करना शायद इच्छा रखें, लेकिन वो पुरुप और घोड़े पहले से शिक्षा और अभ्यास नहीं करने से...संग्राम में शत्रु सैन्य को देखते ही नष्ट हो जाते है ।
[११९] उसी तरह पहले क्षुधादि परीपह, लोचादि कष्ट और तप का अभ्यास नहीं किया, वैसा मुनि मरण समय प्राप्त होते ही शरीर पर आनेवाले परीषह उपसर्ग और वेदना को समता से सह नहीं शकता ।
[१२०] पूर्व तप आदि का अभ्यास करनेवाले और समाधि की कामनावाला मुनि यदि वैषयिक-सुख की इच्छा रोक ले तो परीषह को समता से सहन कर शकता है ।।
[१२१] पहेले शास्त्रोक्त विधि के मुताबिक विगई त्याग, उणोदरी उत्कृष्ट तप आदि करके क्रमशः सर्व आहार का त्याग करनेवाले मुनि मरण काल से निश्चयनयरूप परशु के प्रहार द्वारा परीषह की सेना छेद डालते है ।
. [१२२] पूर्वे चारित्र पालन में भारी कोशीश न करनेवाले मुनि को मरण के वक्त इन्द्रिय पीडा देती है । समाधि में बाधा पेदा करती है । इस तरह तप आदि के पहले अभ्यास न करनेवाले मुनि अन्तिम आराधना के वक्त कायर-भयभीत होकर घबराते है ।
[१२३] आगम का अभ्यासी मुनि भी इन्द्रिय की लोलुपतावाला वन जाए तो उसे मरण के वक्त शायद समाधि रहे या न भी रहे, शास्त्र के वचन याद आए तो समाधि रह भी जाए, लेकिन इन्द्रियरस की परवशता को लेकर शास्त्रवचन की स्मृति नामुमकीन होने से प्रायः करके समाधि नहीं रहती ।
_[१२४] अल्पश्रुतवाला मुनि भी तप आदि का सुन्दर अभ्यास किया हो तो संयम और मरण की शुभ प्रतिज्ञा को व्यथा बिना-सुन्दर तरीके से निभा शकते है ।
[१२५] इन्द्रिय सुख-शाता में व्याकुल घोर परिसह की पराधीनता से धैरा, तप आदि