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देवेन्द्रस्तव-४५
[४५] उसी तरह चमरेन्द्र और बलिन्द्र की पाँच अग्रमहिषी और बाकी के भवनपति की छह अग्रमहिषी होती है ।
[४६] उसी तरह जम्बूद्वीप में दो, मानुषोत्तर पर्वत में चार, अरुण समुद्र में छ और अरुण द्वीप में आठ उस तरह से भवनपति के आवास है ।
[४७] जिस नाम के सागर या द्वीप है उसी नाम के द्वीप या समुद्र में उनकी उत्पत्ति होती है ।
[४८-५०] असुर नाग और उदधि कुमार का आवास अरूणवर समुद्र में होता है और उसमें ही उनकी उत्पत्ति होती है । द्वीप, दिशा, अग्नि और स्तनितकुमार का आवास अरुणवर द्वीप में होता है और उसमें ही उनकी उत्पत्ति होती है । वायुकुमार-सुवर्णकुमार इन्द्र के आवास मानुषोत्तर पर्वत पर होता है । हरि-हरिस्सह देव के आवास विद्युत्प्रभ और माल्यवंत पर्वत पर होते है ।
[५१-६५] हे सुंदरी इस भवनपति देव में जिनका बल-वीर्य पराक्रम है उसके यथाक्रम से आनुपूर्वी से वर्णन करता हूँ । असुर और असुर कन्या द्वारा जो स्वामित्व का विषय है । उसका क्षेत्र जम्बुद्वीप और चमरेन्द्र की चमरचंचा राजधानी तक है । यही स्वामीत्त्व बलि और वैरोचन के लिए भी समजना | धरण और नागराज जम्बूद्वीप को फन द्वारा आच्छादित कर शकते है । उसी तरह भूतानन्द के लिए भी समजना | गरुड़ेन्द्र और वेणुदेव पंख से जम्बूद्वीप को आच्छादित कर शकते है । वही अतिशय वेणुदाली का भी जानना चाहिए । उस जम्बूद्वीप को वशिष्ट अपने हाथ के तल से आच्छादीत कर शकता है । जलकान्त और जलप्रभ एक जलतरंग द्वारा जम्बूद्वीप को भर शकता है । अमितगति और अमितवाहन अपनी एक पाँव की एड़ी से पूरे जम्बूद्वीप को हिला शकता है । वेलम्ब और प्रभंजन एक वायु के गुंजन से पुरे जम्बूद्वीप को भर शकता है । हे सुंदरी ! घोष और महाघोष एक मेघगर्जना शब्द से जम्बूद्वीप को बेहरा बना शकता है । हरि ओर हरिस्सह एक विद्युत से पूरे जम्बूद्वीप को प्रकाशित कर शकता है । अग्निशीख और अग्निमानव एक अगन ज्वाला से पूरे जम्बूद्वीप को जला शकता है । हे सुंदरी तिर्छलोक में अनगिनत द्वीप और सागर है । इसमें से किसी भी एक इन्द्र अपने रूप से इस द्वीप-समुद्र को जम्बूद्वीप को बाये हाथ से छत्र की तरह धारण कर शकता है और मेरु पर्वत को भी परिश्रम बिना ग्रहण कर शकता है । किसी एक ताकतवर इन्द्र जम्बूद्वीप को छत्र और मेरु पर्वत को दंड बना शकता है । उन सभी इन्द्र की ताकत विशेष है ।
[६६-६८] संक्षेप में इस भवनपति के भवन की स्थिति बताई अब यथा क्रम वाणव्यंतर के भवन की स्थिति सुनो । पिशाच, भूत, यक्ष, राक्षस, किन्नर, किंपुरुष महोरग और गंधर्व वो वाणव्यंतर देव के आठ प्रकार के है । यह वाणव्यंतर देव मैंने संक्षेप में बताए । अब एक-एक करके सोलह इन्द्र और उसकी ऋद्धि कहँगा ।
[६९-७२] काल, महाकाल, सुरूप, प्रतिरूप, पूर्णभद्र, माणिभद्र, भीम, महाभीम, किन्नर, किंपुरुष, सत्पुरुष महापुरुष, अतिकाय, महाकाय, गीतरति और गीतयश यह वाणव्यंतर इन्द्र है । और वाणव्यंतर के भेद में सन्निहित, समान, धाता, विधाता, ऋषि, ऋषिपाल, ईश्वर, महेश्वर, सुवत्स, विशाल, हास, हासरति, श्वेत, महाश्वेत, पतंग, पतंगपति उन सोलह इन्द्र को