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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
आलम्बन करे, करवाए, करनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित् ।
[६९-७१] जो साधु-साध्वी पानी नीकालने की नीक या गटर...आहार, पात्रादि की स्थापना के लिए सीक्का और उसका ढक्कन...सूत का या डोर का पर्दा खुद करे, दुसरों के पास करवाए या करनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित् ।
[७२-७५] जो साधु-साध्वी सूई, कातर, नाखून छेदिका, कान खुतरणी, आदि की सुधारणा, धार नीकलना आदि खुद करे, दुसरों से करवाए या अनुमोदना करे ।
[७६-७७] जो साधु-साध्वी थोड़ा लेकिन कठोर या असत्य वचन बोले, बुलवाए या बोलनेवाले की अनुमोदना करे (भाषा समिति का भंग होने से) वो प्रायश्चित् ।
[७८] जो साधु-साध्वी थोड़ा लेकिन अदत्त अर्थात् किसी चीज के स्वामी से नहीं दिया हुआ ग्रहण करे...करवाए या उसे लेनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित् ।
[७९] जो साधु-साध्वी थोड़ा-अल्प बूंद जितना अचित्त ऐसा ठंडा या गर्म पानी लेकर हाथ-पाँव-कान-आँख-दाँत-नाखून या मुँह एकवार या बार-बार धुए, धुलाए या धोनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित् ।
[८०] जो साधु-साध्वी अखंड ऐसे चमड़े को धारण करे अर्थात् पास रखे या उपभोग करे (चमड़े के बने उपानह, उपकरण आदि रखने की कल्पना न करे), करवाए या करनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित् ।
[८१-८२] जो साधु-साध्वी, प्रमाण से ज्यादा और अखंड वस्त्र धारण करे - उपभोग करे, अन्य से उपभोग करवाए या उसकी अनुमोदना करे तो प्रायश्चित् । (ज्यादा वस्त्र हो या पूरा कपडा या अखंड लम्बा वस्त्र रखने से पडिलेहण आदि न हो शके । जीव विराधना मुमकीन बने इसलिए शास्त्रीय नाप मुताबिक वस्त्र रखे । लेकिन अखंड वस्त्र न रखे ।
[८३] जो साधु-साध्वी तुंबड़ा का, लकड़े का या मिट्टी का पात्र बनाए, उसका किसी हिस्सा या मुख बनाए, उसके विषम हिस्से को सीधा करे, विशेष में उसके किसी हिस्से का समारकाम करे अर्थात् इसमें से किसी परिकर्म खुद करे, दुसरों से करवाए या वैसा करनेवाले साधु-साध्वी की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित् ! [पहले तैयार हुए और कल्पे ऐसे पात्र निर्दोष भिक्षा मिले तो ही लेने । इस तरह के समारकाम से छ जीव निकाय विराधना आदि दोष मुमकीन है I]
[८४] जो साधु-साध्वी दंड, दांड़ी, पाँव में लगे कीचड़ को ऊखेड़ने की शूली, वांस की शूली, खुद वनाए, उसके किसी विशेष आकार की रचना करे, आड़े-टेढ़े को सीधा करे। या सामान्य या विशेष से उसका किसी समारकाम करे - करवाए या करनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित् ।
[८५-८९] जो साधु-साध्वी भाई-बहन आदि स्वजन से, स्वजन के सिवा पराये, परजन से...वसति, श्रावकसंघ आदि की मुखिया व्यक्ति से...शरीर आदि से बलवान से...वाचाल, दान का फल आदि दिखाकर कुछ पा शके वैसी व्यक्ति से गवेपित मतलव प्राप्त किया पात्र ग्रहण करे, रखे, धारण करे, अन्य से करवाए या करनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित् । (स्वयं गवेपणा करके निर्दोष और कल्पे ऐसे पात्र धारण करना ।)
[९०-९४] जो साधु-साध्वी हमेशा अग्रपिंड़ मतलब भोजन से पहले अलग किया