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वीरस्तव-३२
[३२] बल, वीर्य, सत्त्व, सौभाग्य, रूप, विज्ञान, ज्ञान में उत्कृष्ट हो । उत्तम पंकज में निवास करते हो (विचरते हो) इसलिए तुम त्रिभुवनमें श्रेष्ठ हो ।
[३३] प्रतिपूर्ण रूप, धन, कान्ति, धर्म, उद्यम, यशवाले हो, भयसंज्ञा भी तुमसे शिथिल हुई है इसलिए हे नाथ ! तुम भयान्त हो ।
[३४] यह लोक परलोक आदि सात तरह के भय आपके विनष्ट हुए है । इसलिए हे जिनेश ! तुम भयान्त हो ।
[३५] चतुर्विध संघ या प्रथम गणधर समान ऐसे तीर्थ को करने के आचारवाले हो इसलिए तुम तीर्थंकर हो ।
[३६] इस प्रकार गुण समूह से समर्थ ! तुम्हें शक्र भी अभिनन्दन करे तो इसमें क्या ताज्जुब ? इसलिए शक्र से अभिवंदित हे जिनेश्वर ! तुम्हें नमस्कार हो ।
[३७] मनःपर्यव, अवधि, उपशान्त और क्षय मोह इन तीनों को जिन कहते है । उसमें तुम परम ऐश्वर्यवाले इन्द्र समान हो इसलिए तुम्हें जिनेन्द्र कहा है ।
[३८] श्री सिद्धार्थ नरेश्वर के घर में धन, कंचन, देश-कोश आदि की तुमने वृद्धि की इसलिए हे जिनेश्वर तुम वर्द्धमान हो ।
[३९] कमल का निवास है, हस्त तल में शंख चक्र, सारंग (की निशानी) है । वर्षिदान को दिया है । इसलिए हे जिनवर तुम विष्णु कहलाते हो ।
[४०] तुम्हारे पास शिव-आयुध नहीं है और तुम नीलकंठ भी नहीं तो भी जीव की बाह्य-अभ्यंतर (कर्म) रज को तुम हर लेते हो इसलिए तुम हर (शीव) हो ।
[४१] कमल समान आसन है । चार मुख से चतुर्विध धर्म कहते है । हंस अर्थात् ह्रस्वगमन से जानेवाले हो इसीलिए तुम ही ब्रह्मा कहलाते हो ।
[४२] समान अर्थवाले ऐसे जीव आदि तत्त्व को सबसे ज्यादा जानते हो । उत्तम निर्मल केवल (ज्ञान-दर्शन) पाए हुए हो इसलिए तुम्हें बुद्ध माना है ।
[४३] श्री वीर जिणंद को इस नामावलि द्वारा मंदपुन्य ऐसे मैंने संस्तव्य किया है । हे जिनवर मुज पर करुणा करके हे वीर ! मुजे पवत्रि शीव पंथ में स्थिर करो ।
वीरस्तव-प्रकिर्णक-१०-हिन्दी अनुवाद पूर्ण