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आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद
[१२] हे सुविनीत वत्स ! तू विनय से विद्या- श्रुतज्ञान शीख, शीखी हुई विद्या और गुण बार-बार याद कर, उसमें सहज भी प्रमाद मत कर । क्योंकि ग्रहण की हुई और गिनती की हुई विद्या ही परलोक में सुखाकारी बनती है ।
[१३] विनय से शीखी हुई, प्रसन्नतापूर्वक गुरुजन ने उपदेशी हुई और सूत्र द्वारा संपूर्ण कंठस्थ की गई विद्या का फल यकीनन महसूस कर शकते है ।
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[१४] इस विषम काल में समस्त श्रुतज्ञान के दाता आचार्य भगवन्त मिलने अति दुर्लभ है और फिर क्रोध, मान आदि चार कपाय रहित श्रुत ज्ञान को शीखनेवाले शिष्य मिलने भी दुर्लभ है ।
[१५] साधु या गृहस्थ कोई भी हो, उसके विनय गुण की प्रशंसा ज्ञानी पुरुष यकीनन करते है । अविनीत कभी भी लोक में कीर्ति या यश प्राप्त नहीं कर शकता ।
[१६] कुछ लोग विनय का स्वरूप, फल आदि जानने के बावजूद भी ईस तरह के प्रबल अशुभ कर्म के प्रभाव को लेकर रागद्वेप से घेरे हुए विनय की प्रवृति करना नहीं चाहते । [१७] न बोलनेवाले या अधिक न पढनेवाले फिर भी विनय से सदा विनीत - नम्र और इन्द्रिय पर काबू पानेवाले कुछ पुरुष या स्त्री की यशकीर्ति लोक में सर्वत्र फैलती है । [१८] भागशाली पुरुष को ही विद्याएँ फल देनेवाली होती है, लेकिन भाग्यहीन को विद्या नहीं फलती ।
[१९] विद्या का तिरस्कार या दुरूपयोग करनेवाला और निंदा अवेहलना आदि द्वारा विद्यावान् आचार्य भगवंत आदि के गुण को नष्ट करनेवाला गहरे मिथ्यात्व से मोहित होकर भयानक दुर्गति पाता है ।
[२०] सचमुच ! समस्त श्रुतज्ञान के दाता आचार्य भगवंत मिलने सुलभ नहीं है । और फिर सरल और ज्ञानाभ्यास मे सतत उद्यमी शिष्य मिलने भी सुलभ नहीं है ।
[२१] इस तरह के विनय के गुण विशेषो - विनीत बनने से होनेवाले महान लाभ को संक्षिप्त में कहा है, अब आचार्य भगवन्त के गुण कहता हूँ, वो एकाग्र चित्त से सुनो ।
[२२] शुद्ध व्यवहार मार्ग के प्ररूपक, श्रुतज्ञान रूप रत्न के सार्थवाह और क्षमा आदि कई लाखों गुण के धारक ऐसे आचार्य के गुण मैं कहूँगा ।
[२३-२७] पृथ्वी की तरह सबकुछ सहन करनेवाले, मेरु जैसे निष्प्रकंप-धर्म में निश्चल और चन्द्र जैसी सौम्य कान्तिवाले, शिष्य आदि ने आलोचन किए हुए दोष दुसरों के पास प्रकट न करनेवाले । आलोचना के उचित आशय, कारण और विधि को जाननेवाले, गम्भीर हृदयवाले, परवादी आदि से पराभव नहीं पानेवाले । उचितकाल, देश और भाव को जाननेवाले, त्वरा रहित, किसी भी काम में जल्दबाजी न करनेवाले, भ्रान्तिरहित, आश्रित शिष्यादि को संयम - स्वाध्याय आदि में प्रेरक और माया रहित, लौकिक, वैदिक और सामाजिकशास्त्र में जिनका प्रवेश है और स्वसमय - जिनागम और परसमय अन्यदर्शन शास्त्र के ज्ञाता, जिसकी आदि में सामायिक और अन्त में पूर्वो व्यवस्थित है । ऐसी द्वादशांगी का अर्थ जिन्होंने पाया है, ग्रहण किया है, वैसे आचार्य की विद्वद्जन पंड़ित - गीतार्थ हमेशा तारीफ करते है ।
[२८] अनादि संसार में कई जन्म के लिए यह जीव ने कर्म काम-काज, शिल्पकला