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संस्तारक-५०
केवल अखंड आत्मरमणता के सुख को महसूस करते है ।
[५१] मोक्ष के सुख की प्राप्ति के लिए, श्री जैनशासन में एकान्ते वर्पकाल की गिनती नहीं है । केवल आराधक आत्मा की अप्रमत्तदशा पर सारा आधार है । क्योंकि काफी साल तक गच्छ में रहनेवाले भी प्रमत आत्मा जन्म-मरण समान संसार सागर में डूब गए है ।
[५२] जो आत्माएँ अन्तिम काल में समाधि से संथारा रूप आराधना को अपनाकर मरण पाते है, वो महानुभाव आत्माएँ जीवन की पीछली अवस्था में भी अपना हित शीघ्र साध शकते है ।
[५३] सूखे घास का संथारा या जीवरहित प्रासुक भूमि ही केवल अन्तिमकाल की आराधना का आलम्बन नहीं है । लेकिन विशुद्ध निरतिचार चारित्र के पालन में उपयोगशील आत्मा संथारा रूप है । इस कारण से ऐसी आत्मा आराधना में आलम्बन है ।
[५४] द्रव्य से संलेखना को अपनाने को तत्पर, भाव से कषाय के त्याग द्वारा रूक्षलुखा ऐसा आत्मा हमेशा जैन शासन में अप्रमत्त होने के कारण से किसी भी क्षेत्र में किसी भी वक्त श्री जिनकथित आराधना में परिणत बनते है ।।
[५५] वर्षाकाल में कई तरह के तप अच्छी तरह से करके, आराधक आत्मा हेमन्त ऋतु में सर्व अवस्था के लिए संथारा पर आरूढ़ होते है ।
[५६] पोतनपुर में पुष्पचूला आर्या के धर्मगुरु श्री अर्णिकापुत्र प्रख्यात थे, वो एक अवसर पर नाव के द्वारा गंगा नदी में ऊतरते थे
[५७] नाव में बैठे लोगों ने उस वक्त उन्हें गंगा में धकेल दिया । उसके बाद श्री अर्णिकापत्र आचार्य ने उस वक्त संथारा को अपनाकर समाधिपूर्वक मरण पाया ।
[५८] कुम्भकर नगर में दंडकराजा के पापबुद्धि पालक नाम के मंत्री ने, स्कंदककुमार द्वारा वाद में पराजित होने की कारण से
[५९] क्रोधवश बनकर माया से, पंच महाव्रतयुक्त ऐसे श्रीस्कन्दसूरि आदि पाँच सौ निर्दोष साधुओ ने यंत्र में पीस दिए
[६०] ममता रहित, अहंकार से पर और अपने शरीर के लिए भी अप्रतिबद्ध ऐसे वो चार सौ निन्नानवे महर्पिपुरुषने उस तरह से पीसने के बावजूद भी संथारा को अपनाकर आराधकभाव में रहकर मोक्ष पाया ।
[६१] दंड नाम के जानेमाने राजर्षि जो प्रतिमा को धारण करनेवालों में थे । एक अवसर पर यमुनावक्र नगर के उद्यान में वो प्रतिमा को धारण करके कार्योत्सर्गध्यान में खडे थे, वहाँ यवन राजा ने उस महर्षि को बाणों से वींध दिया, वो उस वक्त संथारा को अपनाकर आराधक भाव में रहे
[६२] उसके बाद यवन राजा ने संवेग पाकर श्रमणत्व को अपनाया । शरीर के लिए स्पृहारहित बनकर कायोत्सर्गध्यान में खड़े रहे । उस अवसर पर किसी ने उन्हें बाण से वींध लिया । फिर भी संथारा को अपनाकर उस महर्षि ने समाधिकरण पाया ।
[६३] साकेतपुर के श्री कीर्तिधर राजा के पुत्र श्री सुकोशल ऋषि, चातुर्मास में मासक्षमण के पारणे के दिन, पिता मुनि के साथ पर्वत पर से उत्तर रहे थे । उस वक्त पूर्वजन्म की वाघण माँ ने उन्हें फाड़ डाला