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आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद
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तरह दूर से ही त्याग देना चाहिए ।
[१०४] आरम्भ में आसक्त, सिद्धांत में कहे अनुष्ठान करने में पराङ्गमुख और विषय में लंपट ऐसे मुनिओं का संग छोड़कर हे गौतम! सुविहित मुनी के समुदाय में वास करना चाहिए |
[१०५] सन्मार्ग प्रतिष्ठित गच्छ को सम्यक् तरह से देखकर वैसे सन्मार्गगामी गच्छ में पक्ष - मास या जीवनपर्यन्त बसना चाहिए, क्योंकि हे गौतम! वैसा गच्छ संसार का उच्छेद करनेवाला होता है ।
[१०६]जिस गच्छ के भीतर क्षुल्लक या नवदीक्षित शिष्य या अकेला जवान यति उपाश्रय की रक्षा करता हो, उस गच्छ में हम कहते है कि मर्यादा कहाँ से हो ?
[ १०७ ] जिस गच्छ में अकेली क्षुल्लक साध्वी, नवदीक्षित साध्वी, अथवा अकेली युवान साध्वी उपाश्रय की रक्षा करती हो, उस विहार में - उपाश्रय में है गौतम ! ब्रह्मचर्य की शुद्धि कैसी हो ? अर्थात् न हो ।
[१०८] जिस गच्छ के भीतर रात को अकेली साध्वी केवल दो हाथ जितना भी उपाश्रय से बाहर नीकले तो वहाँ गच्छ की मर्यादा कैसी ? अर्थात् नहीं होती ।
[ १०९] जिस गच्छ के भीतर अकेली साध्वी अपने बन्धु मुनि के साथ बोले, अगर अकेला मुनि अपनी भगिनी साध्वी के साथ बात-चीत भी करे, तो हे सौम्य ! उस गच्छ को गुणहीन मानना चाहिए ।
[११०] जिस गच्छ के भीतर साध्वी जकार मकारादि अवाच्य शब्द गृहस्थ की समक्ष बोलती है । वो साध्वी अपनी आत्मा को प्रत्यक्ष तरीके से संसार में डालते है ।
[१११] जिस गच्छ में रुष्ट भी हुई ऐसी साध्वी गृहस्थ के जैसी सावद्य भाषा बोलती है, उस गच्छ को हे गुणसागर गौतम ! श्रमणगुण रहित मानना चाहिए ।
[११२] और फिर जो साध्वी खुद को उचित ऐसे श्वेत वस्त्र का त्याग करके तरहतरह के रंग के विचित्र वस्त्र - पात्र का सेवन करती है, उसे साध्वी नहीं कहते ।
[११३] जो साध्वी गृहस्थ आदि का शीवना- तुगना, भरना आदि करती है या खुद तेल आदि का उद्वर्तन करती है, उसे भी साध्वी नहीं कहा जाता ।
[११४] विलासयुक्त गति से गमन करे, रूई आदि से भरी गद्दी में तकियापूर्वक बिस्तर आदि में शयन करे, तेल आदि से शरीर का उद्वर्तन करे और जिस स्नानादि से विभूषा करे[११५] और फिर गृहस्थ के घर जाकर कथा-कहानी कहे, युवान पुरुष के आगमन का अभिनन्दन करे उस साध्वी को शत्रु मानना चाहिए ।
[११६] बुढ्ढे या जवान पुरुष के सामने रात को जो साध्वी धर्म कहे उस साध्वी को भी गुणसागर गौतम ! गच्छ की शत्रु समान मानना चाहिए ।
[११७] जिस गच्छ में साध्वी परस्पर में कलह न करे और गृहस्थ जैसी सावद्य भाषा न बोले, उस गच्छ को सर्व गच्छ में श्रेष्ठ मानना चाहिए ।
[११८] देवसी, राई, पाक्षिक, चातुर्मासिक या सांवत्सरिक जो अतिचार जितना हुआ