________________
२०
आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
का जतन करनेवाले और तीन तरह के शल्य और आँठ जाति के मद से मुक्त ऐसा पुण्यवान साधु संथारा पर आरूढ़ होता है ।
[३८] तीन गारव से रहित, तीन तरह के पाप दंड का त्याग करनेवाले, इस कारण से जगत में जिसकी कीर्ति फैली है, ऐसे श्रमण महात्मा संथारा पर आरूढ़ होता है ।
[३९] क्रोध, मान आदि चारों तरह के कषाय का नाश करनेवाला, चारों विकथा के पाप से सदा मुक्त रहनेवाले ऐसे साधु महात्मा संथारा को अपनाते है, उन सर्व का संथारा सुविशुद्ध है।
[४०] पाँच प्रकार के महाव्रत का पालन करने में तत्पर, पाँच समिति के निर्वाह में अच्छी तरह से उपयोगशील ऐसे पुण्यवान साधुपुरुष संथारा को अपनाते है ।
[४१] छ जीवनिकाय की हिंसा के पाप से विरत, सात भयस्थान रहित बुद्धिवाला, जिस तरह से संथारा पर आरूढ़ होता है
[२] जिसने आँठ मदस्थान का त्याग किया है ऐसा साधु पुरुष आठ तरह के कर्म को नष्ट करने के लिए जिस तरह से संथारा पर आरूढ़ होता है
[४३] नौ तरह के ब्रह्मचर्य की गुप्ति का विधिवत् पालन करनेवाला और दशविध यतिधर्म का निर्वाह करने में कुशल ऐसा संथारे पर आरूढ़ होता है उन सर्व का संथारा सुविशुद्ध माना जाता है ।
[४४] कषाय को जीतनेवाले और सर्व तरह के कषाय के विकार से रहित और फिर अन्तिमकालीन आराधना में उद्यत होने के कारण से संथारा पर आरूढ़ साधु को क्या लाभ मिलता है ?
[४५] और फिर कषाय को जीतनेवाला एवं सर्व तरह के विषयविकार से रहित और अन्तिमकालीन आराधना में उद्यत होने से संथारा पर विधि के अनुसार आरूढ़ होनेवाले साधु को कैसा सुख प्राप्त होता है ?
[४६] विधि के अनुसार संथारा पर आरूढ़ हुए महानुभाव क्षपक को, पहले दिन ही जो अनमोल लाभ की प्राप्ति होती है, उसका मूल्य अंकन करने के लिए कौन समर्थ है ?
[४७] क्योंकि उस अवसर पर, वो महामुनि विशिष्ट तरह के शुभ अध्यवसाय के योग से संख्येय भव की स्थितिवाले सर्वकर्म प्रति समय क्षय करते है । इस कारण से वो क्षपक साधु उस समय विशिष्ट तरह के श्रमणगुण प्राप्त करते है ।
[४८] और फिर उस अवसर पर तृण-सूखे घास के संथारा पर आरूढ़ होने के बाद भी राग, मद और मोह से मुक्त होने की कारण से वो क्षपक महर्षि, जो अनुपम मुक्तिनिःसंगदशा के सुख को पाता है, वो सुख हमेशा रागदशा में पड़ा हुआ चक्रवर्ती भी कहाँ से प्राप्त कर शके ?
[४९] वैक्रियलब्धि के योग से अपने पुरुषरूप को विकुर्वके, देवताएँ जो बत्तीस प्रकार के हजार प्रकार से, संगीत की लयपूर्वक नाटक करते है, उसमें वो लोग वो आनन्द नहीं पा शकते कि जो आनन्द अपने हस्तप्रमाण संथारा पर आरूढ़ हुए क्षपक महर्षि पाते है ।
[५०] राग, द्वेषमय और परिणाम में कटु ऐसे विषपूर्ण जो वैषयिक सुख को छ खंड का नाथ महसूस करता है उसे संगदशा से मुक्त, वीतराग साधुपुरुष अनुभूत नहीं करते, वो