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संस्तारक - २४
[२४] जो परिषह की सेना को जीतकर, उत्तम तरह के संयमबल से युक्त बनता है, वो पुण्यवान आत्माएँ कर्म से मुक्त होकर अनुत्तर, अनन्त अव्याबाध और अखंड निर्वाण सुख भुगतता है ।
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[२५] श्री जिनकथित संथारा की आराधना प्राप्त करने से तुने तीन भुवन के राज्य मूलकारण समाधि सुख पाया है । सर्व सिद्धान्त में असामान्य और विशाल फल का कारण ऐसे संथारा रूप राज्याभिषेक, उसे भी लोक में तुने पाया है ।
क्योंकि मोक्ष के किया है ।
[२६] इसलिए मेरा मन आज अवर्ण्य आनन्द महसूस करता है, साधनरूप उपाय और परमार्थ से निस्तार के मार्ग रूप संधारा को तुने प्राप्त [२७] देवलोक के लिए कईं तरह के देवताई सुख को भुगतनेवाले देव भी, श्री जिनकथित संथारा कि आराधना का पूर्ण आदरभाव से ध्यान करके आसन, शयन आदि अन्य सर्व व्यापार का त्याग करते है । तथा
[२८] चन्द्र की तरह प्रेक्षणीय और सूरज की तरह तेज से देदीप्यमान होते है । और फिर वो सुविहित साधु, ज्ञानरूप धनवाले, गुणवान और स्थिरता गुण से महाहिमवान पर्वत की तरह प्रसिद्धि पाते है । जो
[२९] गुप्ति समिति से सहित; और फिर संयम, तप, नियम और योग में उपयोगशील; और ज्ञान, दर्शन की आराधना में अनन्य मनवाले, और समाधि से युक्त ऐसे साधु होते है । [३०] पर्वत में जैसे मेरू पर्वत, सर्व समुद्रो में जैसे स्वयंभूरमणसमुद्र, तारों के समूह के लिए जैसे चन्द्र, वैसे सर्व तरह के शुभ अनुष्ठान की मध्य में संथारा रूप अनुष्ठान प्रधान माना जाता है ।
[३१] हे भगवन् ! किस तरह के साधुपुरुष के लिए इस संथारा की आराधना विहित है ? और फिर किस आलम्बन को पाकर इस अन्तिम काल की आराधना हो शकती है ? और अनशन को कब धारण कर शके ? इस चीज को मैं जानना चाहता हूँ ।
[३२] जिसके मन, वचन और काया के शुभयोग सीदाते हो, और फिर जिस साधु को कई तरह की बिमारी शरीर में पेदा हुई हो, इस कारण से अपने मरण काल को नजदीक समझकर, जो संथारा को अपनाते है, वो संधारा सुविशुद्ध है ।
[३३] लेकिन जो तीन तरह के गारव से उन्मत्त होकर गुरु के पास से सरलता से पाप की आलोचना लेने के लिए तैयार नहीं है; यह साधु संथारा को अपनाए तो वो संथारा अविशुद्ध है ।
[३४] जो आलोचना के योग्य है और गुरु के पास से निर्मलभाव से आलोचना लेकर संथारा अपनाते है, वो संथारा सुविशुद्ध माना जाता है ।
[३५] शंका आदि दूषण से जिसका समग्दर्शनरूप रत्न मलिन है, और जो शिथिलता से चारित्र का पालन करके श्रमणत्व का निर्वाह करते है, उस साधु के संथारा की आराधना शुद्ध नहीं - अविशुद्ध है ।
[३६] जो महानुभाव साधु का सम्यग् दर्शनगुण अति निर्मल है, और जो निरतिचाररूप से संयमधर्म का पालन करके अपने साधुपन का निर्वाह करते है । तथा
[३७] राग और द्वेष रहित और फिर मन वचन और काया के अशुभ योग से आत्मा