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नंदी
मात्र के लिए आनन्दकारक है।
२. समनस्क जीव उनके धर्मोपदेश को ग्रहण करते हैं इसलिए भगवान जगदानन्द हैं। ३. समनस्क जीवों में भी भव्य जीव उनके धर्मोपदेश को ग्रहण करते हैं इसलिए भगवान् जगदानन्द हैं।
इससे भगवान् का हितोपदेशकर्तृत्व परिलक्षित होता है। हरिभद्र एवं मलयगिरि ने प्रस्तुत शब्द की व्याख्या में जगत् का अर्थ समनस्क पञ्चेन्द्रिय किया है। उन्होंने चूणिकार के शेष दो विकल्पों को अपनी व्याख्या में स्थान नहीं दिया। इसका हेतु व्याख्या का संक्षेपीकरण हो सकता है।
चूर्णिकार ने 'जगगुरु' की व्याख्या में जग का अर्थ 'समनस्क लोक' किया है और 'जगाणंद' की व्याख्या में जगत् का मुख्य अर्थ 'सत्त्व' किया है। इससे एक नए सत्य की उद्भावना होती है। शास्त्रार्थ का ग्रहण करने में समनस्क जीव समर्थ हैं । आनन्द का अनुभव अमनस्क व समनस्क सभी जीव कर सकते हैं। आनन्द या सुख संवेदनात्मक है इसलिए यह प्रत्येक प्राणी के लिए संभव है। टीकाकारद्वय की व्याख्या से ज्ञानात्मक और संवेदनात्मक इन दो स्थितियों की ओर पाठक का ध्यान आकृष्ट नहीं होता। ४. जगत के स्वामी (जगणाहो)
मलयगिरि ने नाथ का अर्थ 'योगक्षेम' किया है। चूणिकार ने योगक्षेम की व्याख्या अहिंसात्मक दृष्टि से की है । भगवान् दूसरे जीवों के द्वारा सताये जाने वाले, मारे जाने वाले जीवों की रक्षा करते हैं इसलिए वे जगन्नाथ हैं। तात्पर्य की भाषा में मनसा, वाचा और कर्मणा कृत, कारित और अनुमत से किसी का परिताप और वध नहीं करते इसलिए वे जगन्नाथ हैं।'
हरिभद्र ने योगक्षेम के दो हेतु बतलाए हैं१. यथावस्थित तत्त्व का प्ररूपण करते हैं । २. जीव हिंसा में कोई दोष नहीं है इस प्रकार की मिथ्या प्ररूपणा से उत्पन्न भ्रम को दूर करते हैं।
मलयगिरि ने भी हरिभद्र का अनुसरण किया है। ५. जगत्बन्धु (जगबंधू)
भगवान् प्राणिमात्र के बन्धु हैं । जो आपत् काल में साथ नहीं छोड़ता वह बन्धु होता है। भगवान् परीषह और उपसर्ग की स्थिति आने पर भी न किसी जीव की हिंसा करते, न किसी के प्रति अनिष्ट चिन्तन करते । जयाचार्य ने महावीर की उपसर्गकालीन मनोदशा का चित्रण किया है। संगमदेव महावीर को मरणान्त कष्ट दे रहा है। उस समय महावीर सोच रहे हैं -
संगम दु:ख दिया आकरा पिण सुप्रसन्न निजर दयाल ।
जग उद्धार हुवै मो थकी रे, ए डूबै इण काल ।। ६. जगत्पितामह (जगप्पियामहो)
अहिंसा लक्षणवाला धर्म सब सत्त्वों का रक्षक होने के कारण पिता कहलाता है। भगवान् धर्म का प्रणयन करते हैं इसलिए वे धर्म के पिता हैं । इस प्रकार वे प्राणिमात्र के पितामह हो जाते हैं। भगवान् पितामह है इससे यह सूचित होता है कि वे धर्म की अपेक्षा आदिपुरुष हैं।
१. (क) हारिभद्रीया वृत्ति, पृ. ३
(ख) मलयगिरीया वृत्ति, प. १२ २. मलयगिरीया वृत्ति, प. १३ ३. नन्दी चुणि, पृ. २ : जगा--सत्ता ते अणेहि परिभविज्ज
माणे रक्खइ त्ति जगणाहो। कहं ? उच्यते-मणो-वयणकाहि कत-कारिताऽणुमतेहिं रक्खंतो जगणाहो भवति ।
अनेन वचनेन सव्वपाणीणं सणाहता दंसिता भवति । ४. हारिभद्रीया वृत्ति, पृ. ३ : 'जगन्नाथः' इह जगच्छब्देन
सकलचराचरपरिग्रहः, तस्य यथावस्थितस्वरूपप्ररूपणद्वारेण वितथप्ररूपणापायेभ्यः पालनाद नाथवद् नाथ इति । ५. नन्दी चूणि, पृ. २ : 'जगबंधु' त्ति जगा - सत्ता तेसि बंधू
जगबंधू । कहं ? उच्यते-जो अप्पणो परस्स वा आवतीए वि ण परिच्चयति सो बंधू, भगवं च सुठु वि परीसहोवसग्गादिसु बाहिज्जमाणो वि सत्तेसु बंधुत्तं अपरिच्चयंतो ण विराहेति त्ति । अतो जगबंधू, अनेन वचनेन सव्वसत्तेसु
सबंधुता दंसिता भवति । ६. चौबीसी, २४ । ७. नन्दी चूर्णि, पृ. २ : सव्वसत्ताणं अहिंसादिलक्खणो धम्मो पिता रक्खणत्तातो, सो य धम्मो भगवता पणीतो अतो भगवं धम्मपिता, एवं च सव्वसत्ताणं भगवं पितामहो त्ति । अनेन वचनेन धम्म पडुच्च आदिपुरिसत्तं ख्यापितं भवति ।
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