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नंदी
न्याय दर्शन में ज्ञान को आत्मा का लिङ्ग माना गया है। वह अनित्य है। मुक्त अवस्था में ज्ञान तिरोहित हो जाता है । वैशेषिक दर्शन के अनुसार बुद्धि ज्ञान का पर्यायवाची है।" वह आत्मा का विशेष गुण है । वह जीवात्मा की अपेक्षा अनित्य तथा परमात्मा की अपेक्षा नित्य है ।
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सांख्य दर्शन में चैतन्य और ज्ञान को भिन्न माना गया है। चैतन्य पुरुष का धर्म है और ज्ञान प्रकृति का धर्म है ।"
वेदान्त दर्शन चित् शक्ति को ब्रह्मनिष्ठ व ज्ञान को अन्तःकरणनिष्ठ मानता है।"
न्याय और वैशेषिक दर्शन ईश्वरवादी हैं, वेदान्त दर्शन ब्रह्मवादी है इसलिए वे जीव के ज्ञान को नित्य नहीं मानते । सांख्य दर्शन चैतन्य को पुरुषनिष्ठ और ज्ञान को प्रकृतिनिष्ठ मानता है। जैन दर्शन के अनुसार ज्ञान आत्मा का स्वाभाविक गुण है वह औपाधिक गुण नहीं है और अनित्य भी नहीं है । मुक्तावस्था में भी ज्ञान आत्मा के साथ रहता है । इसलिए चैतन्य और ज्ञान में कोई भेदरेखा नहीं खींची जा सकती ।
ज्ञान के पांच प्रकार बतलाए गए हैं। वास्तव में ज्ञान एक ही है । शेष चार उसके प्रकार हैं। स्वाभाविक ज्ञान केवलज्ञान है । वह आत्मा से कभी पृथक् नहीं होता, चाहे आवृत अवस्था में हो या अनावृत अवस्था में। वह नित्य है इसीलिए उसे अक्षर कहा गया है । उसका अनन्तवां भाग सदैव उद्घाटित (अनावृत) रहता है। उस अनावृत अंश के आधार पर चार ज्ञान बनते हैं । केवलज्ञान और उसके परिवारभूत चार ज्ञान को तीन स्तरों पर विभक्त किया जा सकता है
१. इन्द्रियजन्य ज्ञान -मति और
श्रुतज्ञान
२. अतीन्द्रिय ज्ञान- -अवधि और मनः पर्यवज्ञान
३. सर्वथा अनावृत [ अतीन्द्रिय ] ज्ञान - केवलज्ञान ।
चार ज्ञान केवलज्ञान के अंशभूत हैं इसलिए उन्हें स्वाभाविक कहा जा सकता है। ये परिवर्तित होते रहते हैं, एकरूप नहीं रहते इसलिए इन्हें अनित्य भी कहा जा सकता है ।
१. आभिनिबोधिक ज्ञान
आभिनिबोधिक ज्ञान की उत्पत्ति के दो नियम हैं
१. अर्थ (इन्द्रिय विषय) की अभिमुखता - उसका उचित देश में होना ।
२. नियत बोध प्रत्येक इन्द्रिय अपने नियत विषय का बोध करती है ।"
इन दो नियमों के आधार पर होने वाला ज्ञान आभिनिबोधिक ज्ञान है । यह इन्द्रिय और मन दोनों के निमित्त से होता है ।" इसका दूसरा नाम मतिज्ञान है ।
आभिनिबधिक ज्ञान और मतिज्ञान इन दो शब्दों के पौर्वापर्य के विषय में डा० नथमल टाटिया ने इस प्रकार लिखा है
The term ‘mati-jñāna' seems to be older than the terms abhinibodhika'. The karma-theory speaks of mati-jñānāvaraṇa but never abhinibodhika-jñānāvaraṇa. Had the term been as old as 'mati', the karma-theory which is one of the oldest tenets of Jainism must have mentioned it with reference to the avarana that veils it."
षट्खण्डागम में आभिनिबोधिक ज्ञानावरणीय शब्द का प्रयोग मिलता है।" रायपसेणियं में भी आभिनिबोधिक का प्रयोग मिलता है ।" प्रस्तुत आगम में आभिनिबोधिकज्ञान और मतिज्ञान दोनों का प्रयोग मिलता है ।" इसलिए इन दोनों के पौर्वापर्य का अनुसंधान और अधिक अन्वेषण मांगता है ।
२. श्रुतज्ञान
शब्द, संकेत और शास्त्र आदि से जो ज्ञान होता है वह श्रुतज्ञान है । इन्द्रियहेतुक आभिनिबोधिक ज्ञान के द्वारा जिस विषय १. न्यायसूत्र १।१।१० : इच्छा-द्वेष प्रयत्न सुखदुःखज्ञानानि आत्मनो लिङ्गम् ।
७. नन्दी चूर्ण, पृ. १३ : अत्याभिसुहो णियतो बोधो अभिनियोधः स एव स्याविकप्रत्ययोपादानादामिनिवोधिकम् ।
२. वही, १।१।१५ : बुद्धिरुपलब्धिर्ज्ञानमित्यनर्थान्तरम् ।
३. अन्ययोगव्यवच्छेदिका, कारिका १५
४. ज्ञानविप्रकरणम्, परिचय, पृ. १३
५. नवसुत्ताणि, नंदी, सू, ७१ सव्वजीवाणं पि य णं
अक्खरस्त अनंतभागो निच्चुग्धाडिओ ।
६. ज्ञानप्रकरणम्, पृ. १
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८. तत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् १।१४ : तदिन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तम् ।
९. Studies in Jaina Philosophy, p. 30
१०. षट्खण्डागम, पुस्तक १३, पृ. २०९ : णाणावरणीयस्स कम्मर पंच पपडीयो आभिणिबोहियणाणावरणीयं । ११. उवंगसुत्ताणि, रायपसेणियं, सू. ७३९ १२. नवत्ताणि, नंदी, सु. २५,३६
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