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नंदी
से णं अंगठ्ठयाए छठे अंगे, दो तद् अङ्गार्थतया षष्ठम् अङ्गम्, सुयक्खंधा, एगूणतीसं अज्झयगा, द्वौ श्रुतस्कन्धौ, एकोनत्रिंशद् अध्ययएगणतोसं उद्देसणकाला, एगूणतीसं नानि, एकोनत्रिंशद् उद्देशनकालाः, समूहेसणकाला, संखेज्जाइं पय- एकोनत्रिंशत् समुद्देशनकालाः, सहस्साई पयग्गेणं, संखेज्जा। संख्येयानि पदसहस्राणि पदाण, अक्खरा, अणंता गमा, अणंता संख्येयाः अक्षराः, अनन्ताः गमाः, पज्जवा, परित्ता तसा, अणंता अनन्ताः पर्यवाः, परीताः त्रसाः, थावरा, सासय-कड-निबद्ध-निका- अनन्ताः स्थावराः, शाश्वत-कृतइया जिणपण्णत्ता भावा आघ- निबद्ध-निकाचिताः जिनप्रज्ञप्ताः विज्जति पण्णविज्जंति परू- भावाः आख्यायन्ते प्रज्ञाप्यन्ते विज्जंति दंसिज्जति निदंसिज्जंति प्ररूप्यन्ते दयन्ते निदर्श्यन्ते उपउवदसिज्जति।
दर्श्यन्ते। से एवं आया, एवं नाया, एवं स एवमात्मा, एवं ज्ञाता, विण्णाया, एवं चरण-करण-परू- एवं विज्ञाता, एवं चरण-करणवणा आघविज्जइ । सेत्तं नाया- प्ररूपणा आख्यायते। ताः एताः धम्मकहाओ।
ज्ञातधर्मकथाः ।
वह अंगों में छठा अंग है । उसके दो श्रुतस्कन्ध, उनतीस अध्ययन, उनतीस उद्देशनकाल, उनतीस समुद्देशन-काल, पद परिमाण की दृष्टि से संख्येय हजार पद, संख्येय अक्षर, अनन्त गम, अनन्त पर्यव हैं। उसमें परिमित त्रस, अनन्त स्थावर, शाश्वत-कृत-निबद्धनिकाचित जिनप्रज्ञप्त भावों का आख्यान, प्रज्ञापन, प्ररूपण, दर्शन, निदर्शन और उपदर्शन किया गया है।
इस प्रकार ज्ञाता का अध्येता आत्माज्ञाता में परिणत हो जाता है । वह इस प्रकार ज्ञाता और विज्ञाता हो जाता है । इस प्रकार ज्ञाता में चरण-करण की प्ररूपणा का आख्यान किया गया है । वह ज्ञातधर्मकथा है। प.वर उपासक
उपासकदशाओं में श्रमणोपासकों के नगर, उद्यान, चैत्य, वनखण्ड, समवसरण, राजा, माता-पिता, धर्माचार्य, धर्मकथा, ऐहिलौकिकपारलौकिक ऋद्धि-विशेष, भोग परित्याग, पर्याय, श्रुत परिग्रह, तपउपधान, शीलव्रत, गुण, विरमण, प्रत्याख्यान, पौषधोपवास प्रतिपत्ति, प्रतिमा, उपसर्ग, संलेखना, भक्तप्रत्याख्यान, प्रायोपगमन, देवलोकगमन, सुकुल में पुनरारागमन पुनर्बोधिलाभ और अन्तक्रिया आदि का आख्यान किया गया है ।
८७. से कि तं उवासगदसाओ ? अथ काः ताः उपासकदशाः ?
उवासगदसासु णं समणोवासगाणं उपासकदशासु श्रमणोपासकानां नगराई, उज्जाणाई, चेइयाई, नगराणि, उद्यानानि, चैत्यानि, वनवणसंडाई, समोसरणाई, रायाणो, । षण्डानि, समवसरणानि, राजानः, अम्मापियरो, धम्मायरिया, धम्म- मातापितरः, धर्माचार्याः, धर्मकथाः, कहाओ, इहलोइय-परलोइया । ऐहलौकिक-पारलौकिकाः ऋद्धिइढिविसेसा, भोगपरिच्चाया, विशेषाः, भोगपरित्यागाः, पर्यायाः, परिआया, सुयपरिग्गहा, तवोव- श्रुतपरिग्रहाः, तपउपधानानि, शोलहाणाई, सीलव्वय-गुण-वेरमण- व्रत-गुण-विरमण- प्रत्याख्यान - पौषपच्चक्खाण-पोसहोववास-पडि- धोपवास-प्रतिपादनानि, प्रतिमाः, वज्जणया, पडिमाओ, उवसग्गा, उपसर्गाः, संलेखनाः, भक्तप्रत्याख्यासंलेहणाओ, भत्तपच्चक्खाणाई, नानि, प्रायोपगमनानि, देवलोकगमपाओवगमणाई, देवलोगगमणाई, नानि, सुकुलप्रत्यायातीः, पुनर्बोधिसुकुलपच्चायाईओ, पुण बोहि- लाभाः, अन्तक्रियाश्च आख्यायन्ते । लाभा, अंतकिरियाओ य आघविज्जति।
उवासगदसाणं परित्ता वायणा, उपासकदशानां परीताः वाचनाः, संखेज्जा अणुओगदारा, संखेज्जा संख्येयानि अनुयोगद्वाराणि, संख्येयाः वेढा, संखेज्जा सिलोगा, संखे- वेष्टाः, संख्येयाः श्लोकाः, संख्येयाः ज्जाओ निज्जुत्तोओ, संखेज्जाओ नियुक्तयः, संख्येयाः संग्रहण्यः, संख्येयाः संगहणोओ, संखेज्जाओ पडि- प्रतिपत्तयः । वत्तीओ।
से णं अंगट्टयाए सत्तमे अंगे, एगे तद् अङ्गार्थतया सप्तमम् अंगम्, सुयक्खंधे, दस अज्झयणा, दस एकः श्रुतस्कन्धः, दश अध्ययनानि, उद्देसणकाला, दस समुद्देसणकाला, दश उद्देशनकालाः, दश समुद्देशन
उपासकदशा में परिमित वाचनाएं, संख्येय अनुयोगद्वार, संख्येय वेढा (छंद-विशेष), संख्येय श्लोक, संख्येय नियुक्तियां, संख्येय संग्रहणियां और संख्येय प्रतिपत्तियां हैं ।
वह अंगों में सातवां अंग है। उसके एक श्रुतस्कन्ध, दस अध्ययन, दस उद्देशन-काल, दस समुद्देशन-काल, पद परिमाण की दृष्टि से
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