Book Title: Agam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Nandi Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati
View full book text
________________
१४६
नंदी
के नगर, उद्यान, वनखण्ड, चैत्य, समवसरण, राजा, माता-पिता, धर्माचार्य, धर्मकथा, ऐहलौकिक-पारलौकिक ऋद्धिविशेष, नरक गमन, संसार के भव प्रपंच, दुःख परम्पराओं, दुष्कुल में पुनरागमन और दुर्लभ बोधित्व का आख्यान किया गया है। वह दुःखविपाक
Illi
वे सुखविपाक क्या हैं। सुख विपाक में सुख विपाक वाले मनुष्यों के नगर, उद्यान, वनखण्ड, चैत्य, समवसरण, राजा, माता-पिता, धर्माचार्य, धर्मकथा, ऐहलौकिक-पारलौकिक ऋद्धि विशेष, भोग परित्याग, प्रव्रज्या, पर्याय, श्रुतपरिग्रह, तपउपधान, संलेखना, भक्तप्रत्याख्यान, प्रायोपगमन, देवलोकगमन, सुख परम्पराओं, सुकुल में पुनरागमन, पुनर्बोधिलाभ और अन्तक्रिया का आख्यान किया गया है । वह सुखविपाक है।
उज्जाणाई, वणसंडाइं, चेइयाई, राणि, उद्यानानि, वनषण्डानि, समोसरणाई, रायाणो, अम्मा- चैत्यानि, समवसरणानि, राजानः, पियरो, धम्मायरिया, धम्मकहाओ, मातापितरः, धर्माचार्याः, धर्मकथाः, इहलोइय-परलोइया रिद्धिविसेसा, ऐहलौकिक-पारलौकिकाः ऋद्धिनिरयगमणाई, संसारभवपवंचा, विशेषाः, निरयगमनानि, संसारभवदुहपरंपराओ, दुक्कुलपच्चायाईयो, प्रपञ्चाः, दुःखपरम्पराः, दुष्कुलदुल्लहबोहियत्तं आघविज्जइ । प्रत्यायातीः, दुर्लभबोधिकत्वम् सेत्तं दुहविवागा।
आख्यायन्ते । ते एते दुःखविपाकाः । से कि तं सुहविवागा ? सुह- अथ के ते सुखविपाकाः ? सुखविवागेसु णं सुहविवागाणं नगराइं, विपाकेषु सुखविपाकानां नगराणि, उज्जाणाई, वणसंडाइं, चेइयाई, उद्यानानि, वनषण्डानि, चैत्यानि, समोसरणाई, रायाणो, अम्मा- समवसरणानि, राजानः, मातापितरः, पियरो, धम्मकहाओ, इहलोइय- धर्माचार्याः, धर्मकथाः, ऐहलौकिकपरलोइया इढिविसेसा, भोग- पारलौकिकाः ऋद्धिविशेषाः, भोगपरिच्चागा, पव्वज्जाओ, परि- परित्यागाः, प्रव्रज्याः, पर्यायाः, श्रुतआया, सुयपरिग्गहा, तवोवहा- परिग्रहाः, तपउपधानानि, पंलेखनाः, णाई, संलेहणाओ, भत्तपच्चक्खा- भक्तप्रत्याख्यानानि, प्रायोपगमनानि, णाई, पाओवगमणाई, देवलोगग- देवलोकगमनानि, सुखपरम्पराः, मणाई, सुहपरंपराओ, सुकुल- सुकुलप्रत्यायातीः, पुनर्बोधिलाभाः, पच्चायाईओ, पुणबोहिलाभा, अन्तक्रियाः च आख्यायन्ते। ते एते अंतकिरियाओ य आघविज्जंति। सुखविपाकाः । . सेत्तं सुहविवागा।
विवागसूयस्स णं परित्ता विपाकश्रतस्य परीताः वाचनाः, वायणा, संखेज्जा अणुओगदारा, संख्येयानि अनुयोगद्वाराणि, संख्येयाः संखेज्जा वेढा, संखेज्जा सिलोगा, वेष्टाः, संख्येयाः श्लोकाः, संख्येयाः संखेज्जाओ निज्जुत्तीओ, संखे- नियुक्तयः, संख्येयाः संग्रहण्यः, संख्येयाः ज्जाओ संगहणीओ, संखेज्जाओ प्रतिपत्तयः । पडिबत्तीओ।
से णं अंगट्टयाए इक्कारसमे तद अङ्गार्थतया एकादशमम् अंगे, दो सुयक्खंधा, वीसं अज्झ- अङ्गम्, द्वौ श्रुतस्कन्धौ, विशतिः यणा, वीसं उद्देसणकाला, वीसं अध्ययनानि, विशतिः उद्देशनसमुद्देसणकाला, संखेज्जाइं पय- कालाः, विशतिः समुद्देशनकालाः सहस्साई पयग्गेणं, संखेज्जा संख्येयानि पदसहस्राणि पदाग्रेण, अक्खरा, अणंता गमा, अणंता संख्येयानि अक्षराणि, अनन्ताः गमाः, पज्जवा, परित्ता तसा, अणंता
अनन्ताः पर्यवाः, परीताः प्रसाः, थावरा सासय-कड-निबद्ध-निका
अनन्ताः स्थावराः, शाश्वत-कृतइया जिणपण्णत्ता भावा आघ
निबद्ध-निकाचिताः जिनप्रज्ञप्ताः भावाः विज्जति पण्णविज्जति परू
आख्यायन्ते प्रज्ञाप्यन्ते प्ररूप्यन्ते विज्जति दंसिर्जति निदंसिज्जंति
दय॑न्ते निदर्श्यन्ते उपदर्श्यन्ते । उवदंसिज्जति ।
से एवं आया, एवं नाया, एवं स एवमात्मा, एवं ज्ञाता, एवं विण्णाया, एवं चरण-करण-परू- विज्ञाता, एवं चरण-करण-प्ररूपणा
विपाक में परिमित वाचनाएं, संख्येय अनुयोगद्वार, संख्येय वेढा (छंद-विशेष), संख्येय श्लोक, संख्येय नियुक्तियां, संख्येय संग्रहणियां और संख्येय प्रतिपत्तियां हैं।
वह अंगों में ग्यारहवां अंग है। उसके दो श्रुतस्कन्ध, बीस अध्ययन, बीस उद्देशन-काल, बीस समुद्देशन-काल, पद परिमाण की दृष्टि से संख्येय हजार पद, संख्येय अक्षर, अनन्त गम और अनन्त पर्यव हैं। उसमें परिमित बस अनन्त स्थावर, शाश्वत-कृत-निबद्ध-निकाचित जिनप्रज्ञप्त भावों का आख्यान, प्रज्ञापन, प्ररूपण, दर्शन, निदर्शन और उपदर्शन किया गया है।
इस प्रकार विपाक का अध्येता आत्मा-विपाक में परिणत हो जाता है।
Jain Education Intemational
For Private & Personal Use Only
ate & Personal use only
www.jainelibrary.org
Page Navigation
1 ... 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282