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२४८
नंदी
श्रुतनिःसत
१. अवग्रह
२. ईहा
३. अवाय
४. धारणा
१. व्यञ्जनावग्रह
२. अर्थावग्रह किन्तु स्थानांग में द्वितीय स्थानक का प्रकरण होने से दो-दो बातें गिनाना चाहिए, ऐसा समझकर अवग्रह, ईहा आदि चार भेदों को छोड़कर सीधे अवग्रह के दो भेद ही गिनाए गये हैं।
एक दूसरी बात की ओर भी ध्यान देना जरूरी है। अश्रुतनिःसृत के भेदरूप में भी व्यञ्जनावग्रह और अर्थावग्रह को गिना है, किन्तु वहां टीकाकार के मत से यह चाहिए
अश्रुतनिःसत
इन्द्रियजन्य
अनिन्द्रियजन्य
१.अवग्रह
२. ईहा
३. अवाय
४. धारणा
१. औत्पत्तिकी २. वैनयिकी
३. कर्मजा ४. पारिणामिकी
१. व्यञ्जनावग्रह २. अर्थावग्रह
औत्पत्तिकी आदि चार बुद्धियां मानस होने से उनमें व्यंजनावग्रह संभव नहीं। अतएव मूलकार का कथन इन्द्रियजन्य अश्रुतनिःसृत की अपेक्षा से द्वितीय स्थानक के अनुकूल हुआ है, यह टीकाकार का स्पष्टीकरण है। किन्तु यहां प्रश्न है कि क्या अश्रुतनिःसृत में औत्पत्तिकी आदि के अतिरिक्त इन्द्रियज्ञानों का समावेश साधार है ? और यह भी प्रश्न है कि आभिनिबोधिक के श्रुतनिःसृत और अश्रुतनिःसृत ये भेद क्या प्राचीन हैं ? यानी क्या ऐसा भेद प्रथम भूमिका के समय होता था?
नन्दी सूत्र जो कि मात्र ज्ञान की ही विस्तृत चर्चा करने के लिए बना है, उसमें श्रुतनिःसृत मति के ही अवग्रह आदि चार भेद हैं। और अश्रुतनिःसृत के भेदरूप से चार बुद्धियों को गिना दिया गया है। उसमें इन्द्रियज अश्रुतनिःसृत को कोई स्थान नहीं है । अतएव टीकाकार का स्पष्टीकरण कि अश्रुतनिःसृत के वे दो भेद इन्द्रियज अश्रुतनिःसृत की अपेक्षा से समझना चाहिए, नन्दीसूत्रानुकूल नहीं किन्तु कल्पित है। मतिज्ञान के श्रुतनिःसृत और अश्रुतनिःसृत ऐसे दो भेद भी प्राचीन नहीं। दिगम्बरीयवाङ्मय में मति के ऐसे दो भेद करने की प्रथा नहीं। आवश्यक नियुक्ति के ज्ञानवर्णन में भी मति के उन दोनों भेदों ने स्थान नहीं पाया है।
आचार्य उमास्वाति ने तत्वार्थसूत्र में भी उन दोनों भेदों का उल्लेख नहीं किया है। यद्यपि स्वयं नन्दीकार ने नन्दी में मति के श्रुतनिःसृत और अश्रुतनि:सृत ये दो भेद तो किये हैं, तथापि मतिज्ञान को पुरानी परम्परा के अनुसार अठाईस भेदवाला ही कहा है।' उससे भी यही सूचित होता है कि औत्पतिकी आदि बुद्धियों का मति में समाविष्ट करने के लिए ही उन्होंने मति के दो भेद तो किए पर प्राचीन परंपरा में मति में उनका स्थान न होने से नन्दीकार ने उसे २८ भेदभिन्न ही कहा । अन्यथा उन चार बुद्धियों को मिलाने से तो वह ३२ भेदभिन्न ही हो जाता है।
१. "एवं अट्ठावीसइविहस्स आभिणिबोहियनाणस्स" इत्यादि नन्दी ३५॥
२. स्थानांग में ये दो भेद मिलते हैं। किन्तु यह नन्दीप्रभावित हो तो कोई आश्चर्य नहीं।
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