Book Title: Agam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Nandi Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 271
________________ २४६ नंदी सापेक्ष ज्ञान में यह कभी संभव नहीं, कि वह किसी वस्तु का साक्षात्कार कर सके और किसी वस्तु के स्वभाव को विभाव से पृथक कर उसको स्पष्ट जान सके, लेकिन इसका मतलब जैनमतानुसार यहक भी नहीं, कि इन्द्रिय सापेक्ष ज्ञान भ्रम है । विज्ञानवादी बौद्धों ने तो परोक्ष ज्ञान को अबस्तुग्राहक होने से भ्रम ही कहा है, किन्तु जैनाचार्यों ने वैसा नहीं माना । क्योंकि उनके मत में विभाव भी वस्तु का परिणाम है । अतएव वह भी वस्तु का एक रूप है । अतः उसका ग्राहक ज्ञान भ्रम नहीं कहा जा सकता । वह अस्पष्ट हो सकता है, साक्षात्कार रूप न भी हो, तब भी वस्तु-स्पर्शी तो है ही। ___भगवान् महावीर से लेकर उपाध्याय यशोविजय तक के साहित्य को देखने से यही पता लगता है, कि जैनों की ज्ञान-चर्चा में उपर्युक्त मुख्य सिद्धांत की कभी उपेक्षा नहीं की गई, बल्कि यों कहना चाहिए कि ज्ञान की जो कुछ चर्चा हुई है, वह उसी मध्यबिन्दु के आसपास ही हुई है। उपर्युक्त सिद्धांत का प्रतिपादन प्राचीन काल के आगमों से लेकर अब तक के जैन साहित्य में अविच्छिन्न रूप से होता चला आया है। आगम में ज्ञानचर्चा के विकास की भूमिकाएं : पञ्च ज्ञानचा जैन परम्परा में भगवान् महावीर से पहले होती थी, इसका प्रमाण राजप्रश्नीय सूत्र में हैं । भगवान् महावीर ने अपने मुख से अतीत में होने वाले केशीकुमार श्रमण का वृत्तांत राजप्रश्नीय में कहा है। शास्त्रकार ने के शीकुमार के मुख से निम्न वाक्य कहलवाया है :----- एवं खुपएसी अम्हं समणाणं निग्गंथाणं पंचविहे नाणे पण्णते-तं जहा आभिणिबोयिणाणे सुयनाणे ओहिणाणे मणपज्जवणाणे केवलणाणे (सूत्र १६५) इस वाक्य से स्पष्ट फलित यह होता है कि कम से कम उक्त आगम के संकलनकर्ता के मत से भगवान् महावीर से पहले भी श्रमणों में पांच ज्ञानों की मान्यता थी। उनकी यह मान्यता निर्मूल भी नहीं । उत्तराध्ययन के २३ वें अध्ययन से स्पष्ट है कि भगवान् महावीर ने आचार-विषयक कुछ संशोधनों के अतिरिक्त पार्श्वनाथ के तत्वज्ञान में विशेष संशोधन नहीं किया । यदि भगवान् महावीर ने तत्वज्ञान में कुछ नयी कल्पनाएं की होती, तो उनका निरूपण भी उत्तराध्ययन में अवश्य ही होता। आगमों में पांच ज्ञानों के भेदों-प्रभेदों का जो वर्णन है, कर्मशास्त्र में ज्ञानावरणीय के जो भेदप्रभेदों का वर्णन है, जीवमार्गणाओ में पांच ज्ञानों की जो घटना वर्णित है, तथा पूर्वगत में ज्ञानों का स्वतंत्र निरूपण करने वाला जो ज्ञानप्रवाद पूर्व है । इन सबसे यह फलित होता है कि पंचज्ञान की यह चर्चा भगवान महावीर ने नयी नहीं शुरू की है, किन्तु पूर्व परंपरा से जो चली आती थी, उसको ही स्वीकार कर उसे आगे बढ़ाया है। इस ज्ञान चर्चा के विकासक्रम को आगम के आधार पर देखना हो, तो उनकी तीन भूमिकाएं हमें स्पष्ट दीखती हैं :१. प्रथम भूमिका तो वह है, जिसमें ज्ञानों को पांच भेदों में ही विभक्त किया गया है। २. द्वितीय भूमिका में ज्ञानों को प्रत्यक्ष और परोक्ष ऐसे दो भेदों में विभक्त करके पांच ज्ञानों से मति और श्रुत को परोक्षान्तर्गत और शेष अवधि, मनःपर्यव और केवल को प्रत्यक्ष में अन्तर्गत किया गया है। इस भूमिका में लोकानुसरण करके इन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष को अर्थात् इन्द्रियज-मति को प्रत्यक्ष में स्थान दिया गया है। और जो ज्ञान, आत्मा के अतिरिक्त अन्य साधनों की भी अपेक्षा रखते हैं, उनका समावेश परोक्ष में किया गया है। यही कारण है कि इन्द्रियजन्य ज्ञान जिसे जैनेतर दार्शनिकों ने प्रत्यक्ष कहा है, प्रत्यक्षान्तर्गत नहीं माना गया है । ३. तृतीय भूमिका में इन्द्रियजन्य ज्ञानों को प्रत्यक्ष और परोक्ष उभय में स्थान दिया गया है। इस भूमिका में लोकानुसरण स्पष्ट है। १. प्रथम भूमिका के अनुसार ज्ञान का वर्णन हमें भगवती सूत्र में (८८.२.३१७) मिलता है। उसके अनुसार ज्ञानों को निम्न सूचित नक्शे के अनुसार विभक्त किया गया है । ज्ञान १. आभिनिबोधिक २. श्रुत ३. अवधि ४. मन:पर्यव ५. केवल १.. आभिनिवोधिक २. श्रुत १. अवग्रह २. हा ३. अवधि ३. वाय ४. मनःपर्यव . धारणा १. अवग्रह २. ईहा ३. अवाय ४.धारणा Jain Education Intemational cation International For Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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