________________
२५०
नंदी किया है । अर्थात् आगमिकों ने प्रमाण या अप्रमाण ऐसे विशेषण बिना दिए ही प्रथम के तीनों में अज्ञान-विपर्यय-मिथ्यात्व की तथा सम्यक्त्व की संभावना मानी है और अन्तिम दो में एकान्त सम्यक्त्व ही बतलाया है। इस प्रकार ज्ञानों को प्रमाण या अप्रमाण न कह करके भी उन विशेषणों का प्रयोजन तो दूसरी तरह से निष्पन्न कर ही दिया है।
जैन आगमिक आचार्य प्रमाणाप्रमाणचर्चा, जो दूसरे दार्शनिकों से चलती थी, उससे सर्वथा अनभिज्ञ तो थे ही नहीं किन्तु वे उस चर्चा को अपनी मौलिक और स्वतन्त्र ऐसी ज्ञानचर्चा से पृथक् ही रखते थे। जब आगमों में ज्ञान का वर्णन आता है, तब प्रमाणों या अप्रमाणों से उन ज्ञानों का क्या सम्बन्ध है उसे बताने का प्रयत्न नहीं किया है। और जब प्रमाणों की चर्चा आती है तब किसी प्रमाण को ज्ञान कहते हुए भी आगम प्रसिद्ध पांच ज्ञानों का समावेश और समन्वय उसमें किस प्रकार है. यह भी नहीं बताया है। इससे फलित यही होता है कि आगमिकों ने जनशास्त्र प्रसिद्ध ज्ञानचर्चा और दर्शनान्तर प्रसिद्ध प्रमाणचर्चा का समन्वय करने का प्रयत्न नहीं किया-दोनों चर्चा का पार्थक्य ही रखा । आगे के वक्तव्य से यह बात स्पष्ट हो जायेगी। जैन आगमों में प्रमाण-चर्चा :
प्रमाण के भेद-जैन आगमों में प्रमाण-चर्चा ज्ञानचर्चा से स्वतन्त्र रूप से आती है। प्रायः यह देखा गया है कि आगमों में प्रमाणचर्चा के प्रसंग में नैयायिकादिसम्मत चार प्रमाणों का उल्लेख आता है। कहीं-कहीं तीन प्रमाणों का उल्लेख है।
भगवती सूत्र (५.३.१६१,१६२) में गौतम गणधर और भगवान् महावीर के संवाद में गौतम ने भगवान् से पूछा कि जैसे केवलज्ञानी अंतकर या अंतिम शरीर को जानते हैं, वैसे ही क्या छद्मस्थ भी जानते हैं ? इसके उत्तर में भगवान ने कहा कि
"गोयमा णो तिणठे समझें। सोच्चा जाणति पासति पमाणतो वा । से कि तं सोच्चा? केवलिस्स वा केवलिसावयस्स वा केवलिसावियाए वा केवलिउवासगस्स वा केवलिउवासियाए वा से तं सोचा। से कि तं पमाणं ? पमाणे चउविहे पण्णत्ते, तं जहा-पच्चक्खे अणुमाणे ओवम्मे आगमे जहा अणुओगद्दारे तहा णेयव्वं पमाणं" भगवती सूत्र ५.३.१६१,१६२ ।
Jain Education Intemational
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org