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प्र० ५, सू० ८०-९१, टि.४
भाष्यकारों ने व्यवहार (प्रायश्चित्त दान) के लिए नवपूर्वी का भी प्रामाण्य माना है। वहां आगम रचना का प्रसंग नहीं है। सम्यक्श्रुत की दृष्टि से नवपूर्वी का प्रामाण्य निश्चित नहीं है । इन दोनों अभ्युपगमों का एक साथ अध्ययन करने पर यह निष्कर्ष निकलता है कि आगम रचना में सम्पूर्ण दशपूर्वी तक का प्रामाण्य है, नवपूर्वी आदि के श्रुत का प्रामाण्य नहीं है।
भट्ट अकलंक ने दशपुर्वधर के चारित्र को विचलित न होने वाला चारित्र बतलाया है। इससे भी दशपूर्वी के वचन का प्रामाण्य सिद्ध होता है।
जयधवला में मूलाराधना और मुलाचार की गाथा उद्धृत की गई है। इसमें गणधर, प्रत्येकबुद्ध, श्रुतकेवली और सम्पूर्ण दशपूर्वधर के द्वारा रचित आगम का प्रामाण्य स्वीकार किया है।'
द्रष्टव्य-ठाणं, पृ० ६२९, ६३०; भगवई, भाष्य भूमिका पृ० ३२, ३३ ।
१. तत्वार्थवार्तिक, ३१३६, पृ. २०२:महारोहिण्यादिभिस्त्रि
रागताभिः प्रत्येकमात्मीयरूपसामर्थ्याविष्करणकथनकुशलाभिर्वेगवतीभिविद्यादेवताभिरविचलितचारित्रस्य दशपूर्वदुस्तरसमुद्रोत्तरणं दशपूवित्वम् ।
२. कषायपाहुड़, पृ १५३ सुत्तं गणहर कहियं तहेय पत्तेयबुद्धकहियं च । सुदकेवलिणा कहियं अभिष्णबसपुस्विकहियं च ॥
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