Book Title: Agam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Nandi Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 213
________________ १८८ नंदी सूत्र १२५ १३. (सूत्र १२५) प्रस्तुत प्रकरण में द्वादशाङ्ग गणिपिटक में प्राप्त आज्ञा की आराधना और विराधना का परिणाम बताया है। विराधना का परिणाम है-संसार (जन्म-मरण का चक्र) भ्रमण । आराधना का परिणाम है-संसार से मुक्ति। चूर्णिकार ने द्वादशाङ्ग गणिपिटक के तीन प्रकारों का निर्देश किया है'-१. सूत्र, २. अर्थ, ३. तदुभय। इस आधार पर आज्ञा के भी तीन प्रकार बन जाते हैं:--- १. सूत्राज्ञा २. अर्थाज्ञा ३. तदुभयाज्ञा। जिनके द्वारा शिष्य को ज्ञान कराया जाता है वह आज्ञा है। जिससे हित का ज्ञान कराया जाता है वह आज्ञा है।' शब्द विमर्श आराधना-साध्य के अनुरूप आचरण करना । विराधना-साध्य के प्रतिकूल आचरण करना । सूत्र १२६ १४. (सूत्र १२६) प्रस्तुत सूत्र में द्वादशाङ्ग गणिपिटक की कालिकता की प्ररूपणा की गई है। इसे पढते समय मीमांसकों का वेदों की नित्यता का सिद्धान्त सामने आ जाता है। दार्शनिक युग में जैन आचार्यों ने वेदों की नित्यता का निरसन किया। इस अवस्था में द्वादशाङ्गी की नित्यता की स्थापना कैसे की जा सकती है। मीमांसक शब्द को नित्य मानते हैं और जैन दर्शन के अनुसार शब्द अनित्य है। द्वादशाङ्गी शब्द निबद्ध है। कोई भी भाषा नित्य नहीं होती। अतः भाषा में लिखा हुआ कोई ग्रन्थ नित्य नहीं हो सकता। पञ्चास्तिकाय नित्य है। इसका तात्पर्य है कि द्वादशाङ्गी में प्रतिपादित तत्त्व नित्य है। उसका भाषात्मक स्वरूप नित्य नहीं है। आत्मा तत्त्व नित्य है। उसके लिए आत्मा, चैतन्य, चेतना आदि प्रयुक्त होने वाले शब्द नित्य नहीं हैं इसलिए आचाराङ्ग में कहा है- 'अपयस्स पयं नथि ।। सूत्र १२७ १५. (सूत्र १२७) ___ आभिनिबोधिकज्ञान', अवधिज्ञान', मनःपर्यवज्ञान और केवलज्ञान की विषय वस्तु पहले बतलाई जा चुकी है। श्रुतज्ञान की विषयवस्तु प्रस्तुत सूत्र में निर्दिष्ट है। श्रुतज्ञानी उपयुक्त-श्रुतज्ञान में दत्तचित्त होकर सब द्रव्यों को जानता देखता है। आभिनिबोधिकज्ञान के संदर्भ में सर्व शब्द आदेश-सापेक्ष है और यहां सर्व शब्द ग्रन्थ अथवा श्रुत-सापेक्ष है। चूर्णिकार के अनुसार श्रुतज्ञान की विषय वस्तु का प्रतिपादन सम्पूर्ण दशपूर्वधर यावत् श्रुतकेवली (चतुर्दशपूर्वधर) आदि की अपेक्षा से किया गया १. (क) नन्दी चूणि, पृ. ८०: 'दुवालसंगं गणिपिडगं' ति तिविहं पण्णत्तं-सुत्ततो अस्थतो तदुभयतो। (ख) अणुओगदाराई, सू. ५५० का शब्द विमर्श । २. नन्दी चूणि, पृ. ८०,८१ : एमेव आणा तिविहा-सुत्ताणा अत्थाणा तदुभयआणा य। ३. वही, पृ.८१: यदा आज्ञाप्यते एभिः तदा आज्ञा भवति, तंतुपटव्यपदेशवत् । आज्ञाप्यते यया हितोपदेशत्वेन सा आज्ञा इति। ४. आयारो, ५॥१३९ ५. नवसुत्ताणि, नंदी, सू. ५४ ६. वही, सू. २२ ७. वही, सू. २५ ८. वही, सू. ३३ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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