________________
परिशिष्ट ३ : कथा
२२३
३. कुमार दृष्टांत'
एक राजकुमार था । उसे लड्डू खाने का बहुत शौक था। एक बार वह मोदक के भण्डार में चला गया। स्त्रियों के साथ जी भरकर मोदक खाए।
उसे अजीर्ण रोग हो गया। अपान भी दूषित हो गई। उसने चिन्तन किया-अहो ! यह शरीर कैसा अशुचिमय है । इस प्रकार के मनोहर धान्य कण भी शरीर के संपर्क से दुर्गन्धयुक्त हो गए हैं । अशुचिमय इस शरीर को धिक्कार है। शरीर के प्रति होने वाले इस मोह को धिक्कार है । इस शरीर के लिए प्राणी पापकर्मों का अर्जन करते हैं। इस प्रकार शरीर से अनासक्ति हो गई । यह राजकुमार की पारिणामिकी बुद्धि थी। ४. देवी दृष्टान्त'
पुष्पभद्र नगर में पुष्पसेन राजा, पुष्पवती रानी। उसके दो सन्तान थी-पुष्पचूल और पुष्पचूला। वे दोनों परस्पर अनुरक्त हो गए और भोग भोगने लगे। इसे देख रानी को संसार से विरक्ति हो गई और उसने दीक्षा ले ली। वहां से आयुष्य पूर्ण कर वह देवलोक में देवरूप में उत्पन्न हुई। उसने चिन्तन किया-यदि पुष्पचूल और पुष्पचूला इस अवस्था में मरेंगे तो वे नरक अथवा तियं च गति में उत्पन्न होंगे । सन्तान को दुर्गति से बचाने के लिए उसने एक उपाय सोचा और पुष्पचूला को स्वप्न में नारकों को दिखाया । नारक अवस्था के दुःखों को देखकर बह भयभीत हो गई। उसने कुछ धर्मावलम्बियों से नरक के विषय में पूछा, पर वे इस विषय में कुछ नहीं जानते थे। उस समय वहां अणिकापुत्र नामक जैनाचार्य विराजते थे। उन्हें बुलवाया गया। पुष्पचूला ने जब उन्हें नरक के विषय में पूछा । उन्होंने सूत्र का कथन किया। पुष्पचूला ने पूछा-महाराज! क्या आपने भी नरक का स्वप्न देखा ? आचार्य ने कहा-नहीं, हमने सूत्र में ऐसा नरक देखा है। (सूत्र में ऐसे नरक का वर्णन मिलता है।)
देवता ने अबकी बार पुष्पचूला को स्वप्न में देवलोक दिखाए। आचार्य अणिकापुत्र से जब उसने देवलोक के विषय में जिज्ञासा की, तो उन्होंने भी वैसा ही वर्णन किया जैसा उसने स्वप्न में देखा था। नरक और देवगति की यथार्थ जानकारी कर उसने समझ लिया कि भोग उसकी दुर्गति के कारण बनेंगे। वह उनसे विरक्त होकर प्रबजित हो गई। यह देव (देवी पुष्पवती) की पारिणामिकी बुद्धि थी। ५. उदितोदय दृष्टान्त
पुरिमताल नगर, उदितोदय राजा, श्रीकान्ता रानी। दोनों श्रावक थे।
एक बार एक परिव्राजिका आई । उसने परिव्राजक धर्म का उपदेश दिया किन्तु राजा और रानी की युक्तियों से उसे पराजित होना पड़ा। दासियों ने विडम्बनापूर्वक उसे सभा से निकाल दिया। उसके मन में राजा रानी के प्रति द्वेष जाग गया। उनसे बदला लेने के लिए वह वाराणसी गई। वहां उस समय राजा धर्मरुचि शासन करता था। वह धर्मरुचि के दरबार में गई और एक फलक पट्टिका पर रानी श्रीकान्ता का अत्यन्त सुन्दर चित्र बनाकर उसे दिखाया। राजा भी श्रीकान्ता के रूप पर आसक्त हो गया। उसने अपना दूत पुरिमताल भेजा। दूत को प्रतिहत और अपमानित कर नगर से निकाल दिया गया। अन्य उपाय न देखकर राजा धर्मरुचि ने पुरिमताल पर चढाई कर दी और पूरे नगर पर घेराबन्दी कर दी।
राजा उदितोदय ने सोचा - यदि युद्ध होगा, महान् जनहानि होगी। भयंकर जनक्षय से क्या लाभ । उसने उपवास किया और वैश्रवण देव को याद किया। देव ने उसकी भावना जानकर राजा सहित पुरिमताल नगर का संहरण कर लिया। प्रात:काल नगर को न देख धर्मरुचि को खाली हाथ लौटना पड़ा। युद्ध टल गया। यह उदितोदय की पारिणामिकी बुद्धि थी। १. (क) आवश्यक चूणि, पृ. ५५९
(घ) नन्दी मलयगिरीया वृत्ति, प. १६६ (ख) आवश्यक नियुक्ति हारिभद्रीया वृत्ति, पृ. २८६
(च) नन्दी हारिभद्रीया वृत्ति टिप्पणकम्, पृ. १४१ (ग) नन्दी मलयगिरीया वृत्ति , प. १६६
(छ) आवश्यक नियुक्ति दीपिका, प. १८२ (घ) नन्दी हारिभद्रीया वृत्ति टिप्पणकम्, पृ. १४१
४. (क) आवश्यक चूणि. पृ. ५५९ (च) आवश्यक नियुक्ति दीपिका, प. १८२
(ख) आवश्यक नियुक्ति हारिभद्रीया वृत्ति, पृ. २८७ २. आवश्यकनियुक्ति दीपिका में यह कथा भिन्न प्रकार से
(ग) आवश्यक नियुक्ति मलयगिरीया वृत्ति, प. ५२९ उपलब्ध होती है।
(घ) नन्दो मलयगिरीया वृत्ति, प. १६६ ३. (क) आवश्यक चूणि, पृ. ५५९
(च) नन्दी हारिभद्रीया वृत्ति टिप्पणकम्, पृ. १४१ (ख) आवश्यक नियुक्ति हारिभद्रीया वृत्ति, पृ. २८६,२८७ (छ) आवश्यक नियुक्ति दीपिका, प. १८२ (ग) आवश्यक नियुक्ति मलयगिरीया वृत्ति, प. ५२८,५२९
Jain Education Intemational
www.jainelibrary.org
For Private & Personal Use Only