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नंदी
८. करण-धारणा द्वारा प्राप्त विषय का आचरण, अनुष्ठान अथवा अनुशीलन करना ।'
आचार्य हेमचन्द्र ने इस गाथा में निर्दिष्ट बुद्धि के आठ गुणों का कुछ भिन्न रूप में निर्देश किया है-शुश्रूषा, श्रवण, ग्रहण, धारणा, ऊहा, अपोह, अर्थविज्ञान और तत्त्वज्ञान । १८. (गाथा ४)
प्रस्तुत गाथा में श्रवण विधि का निर्देश किया गया है । श्रवण के सात अङ्ग निर्दिष्ट है'१. मूक-गुरु पढ़ाए उस समय शिष्य प्रथम बार के श्रवण में मौन रहकर अध्ययन के विषय का अवधारण करें। २. हुंकार-द्वितीय बार के श्रवण में हुंकार शब्द का उच्चारण करना । ३. बाढंकार-तृतीय बार के श्रवण में बाढंकार का प्रयोग करें-आप कह रहे हैं वैसा ही है। बहुत अच्छा, बहुत अच्छा,
ऐसा कहें। ४. प्रतिपृच्छा-प्रश्न प्रस्तुत करें। ५. विमर्श, मीमांसा-अधीयमान विषय की मीमांसा करें, प्रमाण की जिज्ञासा करें। ६. प्रसंग पारायण--अधीयमान विषय का पारगामी बनें।
७. परिनिष्ठा-विषय की सम्पन्नता तक पहुंच जाएं। १६. (गाथा ५)
गुरु के द्वारा की जाने वाली व्याख्यान विधि१. प्रथम अनुयोग-सूत्र के अर्थमात्र का प्रतिपादन । २. द्वितीय अनुयोग-सूत्रस्पर्शी नियुक्ति मिश्रित अर्थ का प्रतिपादन ।
३. तृतीय अनुयोग-निरवशेष अर्थ का प्रतिपादन। इसमें समग्र दृष्टि से अनुयोग किया जाता है, प्रासंगिक और अल्प प्रासंगिक विषय भी बताए जाते हैं।'
श्रवण विधि के सात प्रकार बतलाए गए हैं और अनुयोगविधि के तीन प्रकार बतलाए गए हैं। यह एक विरोधाभास है । हरिभद्रसूरि ने इसका समाधान इस प्रकार किया है-सब शिष्य समान योग्यता वाले नहीं होते, उनमें ग्रहण शक्ति का तारतम्य होता है। इसलिए योग्यता की तरतमता के आधार पर इन तीनों अनुयोग विधियों में से किसी एक विधि का सात बार प्रयोग किया जा सकता है। इसलिए दोनों में विरोधाभास नहीं है। आचार्य मलयगिरि' ने हरिभद्र का अनुसरण किया है।
१. (क) द्रष्टव्य, विशेषावश्यकभाष्य, गा. ५५९ से ५६४ (ख) हारिभद्रीया वृत्ति, पृ. ९६
(ग) मलयगिरीया वृत्ति, प. २५० २. अभिधान चिन्तामणि, २।३१०,३११ ३. (क) विशेषावश्यकभाष्य, गा. ५६५
(ख) हारिभद्रीया वृत्ति, पृ. ९६
(ग) मलय गिरीया वृत्ति, प. २५० ४. विशेषावश्यकभाष्य, गा. ५६७ ५. हारिभद्रीया वृत्ति, पृ. ९६,९७ ६. मलयगिरीया वृत्ति, प. २५०
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