________________
परिशिष्ट ३: कथा
२१५
गुरु ने पूछा-अरे ! तू आज चरणों में प्रणिपात क्यों नहीं कर रहा है ? अविमृश्यकारी शिष्य बोला-जिसको अच्छी तरह पढ़ाया है वही प्रणाम करेगा, मैं नहीं करूंगा। गुरु ने पूछा-क्या तुमको अच्छी तरह से नहीं पढ़ाया ? उसने सारी घटित घटना बतलाई और कहा-इसका सारा ज्ञान सत्य निकला और मेरा असत्य । गुरु ने विमृश्यकारी शिष्य से पूछा-वत्स ! तुमने यह सब कैसे जाना ?
विमृश्यकारी शिष्य बोला-आपने जो ज्ञान दिया उसके अनुसार विमर्श करना प्रारम्भ किया कि यह पैर हाथी का है यह स्पष्ट है । फिर मैंने विशेष चिन्तन किया कि यह हाथी का पैर है या हथिनी का? उसकी प्रश्रवण भूमि को देखकर मैंने निश्चय किया कि यह हथिनी का पर है। दक्षिण पार्श्व की बेलें खाई हुई हैं न कि बाएं पार्श्व की। इसलिए मैंने निश्चय किया कि यह हथिनी बायीं आंख से कानी है तथा दूसरा कोई सामान्य व्यक्ति इस प्रकार हथिनी पर आरूढ़ नहीं हो सकता। इस आधार पर मैंने निश्चय किया कि अवश्य कोई राजकीय पुरुष है। उसने किसी स्थान पर हथिनी से उतरकर प्रश्रवण किया। उसको देखकर मैंने निश्चय किया कि वह रानी है। वृक्ष पर लाल वस्त्र की किनारी का कोई हिस्सा देखा, उससे मैंने अनुमान किया कि वह सधवा स्त्री है। भूमि पर हाथ को टिकाकर उठने से प्रतीत हुआ कि वह गर्भवती है। दायां पैर बहुत कठिनाई के साथ रखा हुआ है उससे मैंने जान लिया कि कल ही प्रसव होने वाला है।
वृद्ध स्त्री के प्रश्न पूछते ही घड़ा गिर गया। तब मैंने सोचा-पानी पानी में मिल गया, मिट्टी मिट्टी में, इसलिए बुढ़िया को भी इसका पुत्र मिलना चाहिए । विमृश्यकारी शिष्य को गुरु ने प्रसन्नतापूर्वक देखा और उसे साधुवाद दिया। विमृश्यकारी शिष्य का सारा वृत्तान्त सुनकर गुरु ने अविमृश्यकारी शिष्य से कहा-इसमें मेरा दोष नहीं है, दोष तुम्हारा है कि तुम किसी तथ्य पर विमर्श नहीं करते। हम तो मात्र शास्त्र के अर्थ का अवबोध कराने के अधिकारी हैं, विमर्श के अधिकारी तो तुम हो। २. अर्थशास्त्र दृष्टान्त'
नंदवंश का प्रतापी राजा नंद शासन कर रहा था। उसकी राजधानी थी पाटलिपुत्र (वर्तमान में पटना)। उसके मन्त्री का नाम था कल्पक । वह बुद्धिमान था । राजा ने किसी अपराध के कारण उसे कुए में डलवा दिया। लोगों ने उनकी मृत्यु की अफवाह फैला दी । शत्रु-राजाओं ने पाटलिपुत्र पर आक्रमण कर दिया। नन्द राजा ने उसी समय कल्पक को कुए से बाहर निकलवा दिया। कल्पक सन्धिवार्ता के लिए शत्रुओं के मन्त्रियों से मिलने गया। उसने इक्षु दण्ड के ऊपर के भाग को तोड़ दिया और नीचे के भाग को भी तोड़ दिया। फिर बीच में क्या बचेगा? यह असम्बद्ध बात हाथ के संकेत से बताई और चला गया।' ३,४. लेख, गणित दृष्टान्त'
लाट, कर्नाटक, द्रविड़ (तमिल) आदि अठारह देश की लिपियों को जानने वाले की बुद्धि वनयिकी है। आवश्यक टिप्पणकार ने एक दृष्टान्त प्रस्तुत किया है।
१. (क) आवश्यकचूणि, पृ. ५५३ : अत्थसत्थे कप्पओ दधि
कुंडग उच्छुकलावग एवमादि। (ख) आवश्यकनियुक्ति हारिभद्रीया वृत्ति, पृ. २८३ (ग) आवश्यकनियुक्ति मलयगिरीया वृत्ति, प. ५२४ (घ) नन्दी मलयगिरीया वृत्ति, प. १६१ : मलयगिरि ने
दृष्टान्त का उल्लेख किया है किंतु उसे निरूपित नहीं किया है। __'अत्थसत्थे' त्ति अर्थशास्त्रे कल्पको मन्त्री दृष्टान्तो,
दहिकुंडग उच्छुकलावओ च इति संविधानके। (च) नंदी हारिभद्रीया वृत्ति टिप्पणकम्, पृ. १३७ (छ) आवश्यकनियुक्ति दीपिका, प. १८० २. इस कहानी का आधार है -आवश्यकनियुक्ति दीपिका । ३. (क) आवश्यक हारिभद्रीया टिप्पणकम्, प.५८ (ख) आवश्यकचूणि आदि ग्रंथों में भी इसका उल्लेख
मिलता है।
(ग) आवश्यकचूणि, प. ५५३ : लेहे जया अट्ठारसलिविजाणयो।
एवं गणिए वि। (घ) आवश्यक हारिभद्रीया वृत्ति, पृ. २८३ : लेहे अट्ठारसलिवि
जाणगे, अण्णे भणंति-गणिए जहा विसमगणितजाणगो, अण्णे भणंति- कुमारा बट्टेहि रमता अक्खराणि सिक्खावियाणि । गणिए वि, एसा वि सिक्खावयस्स वेणइगी बुद्धि ।
अठारह लिपियों का ज्ञान करना वैनयिकी बुद्धि है। एक मत यह है कि गेंद से क्रीड़ा करते-करते अक्षरों को सिखा देते हैं। इसी प्रकार गणित सिखा देना गणित
विषयक वैनयिकी बुद्धि है। (च) आवश्यक मलयगिरीया वृत्ति, प. ५२४ (छ) नन्दी मलयगिरीया बत्ति, प. १६१ : 'लेहे' ति लिपिपरि
ज्ञानं, 'गणिए' त्ति गणितपरिज्ञानं, एते च द्वे अपि वनयिक्यो बुद्धी।
Jain Education Intemational
www.jainelibrary.org
For Private & Personal Use Only
For Private & Personal Use Only