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नंदो
माता को नमस्कार कर राजा अपने स्थान पर आ गया। रोहक को बुलाकर एकान्त में पूछा-तुम्हें कैसे पता चला कि मैं पांच पिता से पैदा हुआ हूं?
रोहक-न्यायपूर्वक प्रजा का पालन करते हैं उससे मैंने जान लिया कि आप राजा के पुत्र हैं। आप दान देते हैं इससे मैंने जान लिया कि आप वैश्रमण से उत्पन्न हैं । आप शत्र के प्रति चाण्डाल की भांति क्रोध करते हैं उससे मैंने जान लिया कि आप चाण्डाल से उत्पन्न हैं।
धोबी जैसे वस्त्र को गहरा निचोड़ लेता है वैसे ही आप सर्वस्व हरण कर लेते हैं उससे मैंने जान लिया कि आप धोबी से उत्पन्न हैं।
मैं विश्वस्त होकर सो रहा था। आपने मेरे शरीर पर कम्बिका को चुभोया। उससे मैंने जान लिया कि आप वृश्चिक से उत्पन्न हैं। उत्तर सुनकर राजा संतुष्ट हो गया और रोहक को सर्वोच्च अधिकारी बना दिया।
३. वैनयिकी बुद्धि के दृष्टान्त १. निमित्त दृष्टान्त'
किसी नगर में एक सिद्ध पुत्र रहता था। उसके दो शिष्य निमित्त शास्त्र का अध्ययन करते थे। उनमें से एक गुरु के प्रति अत्यन्त विनम्र था, विमृश्यकारी था। गुरु जो भी निर्देश देते, उसे स्वीकृत कर वह निरन्तर चिन्तन करता । कहीं संदेह होने पर गुरु के पास आकर विनम्रतापूर्वक जिज्ञासा करता । इस प्रकार निरन्तर विमर्शपूर्वक शास्त्रार्थ का चिन्तन करते-करते उसकी प्रज्ञा प्रकर्ष को प्राप्त हो गई। दूसरा शिष्य अविनीत था, अविमृश्यकारी था। एक बार गुरु के निर्देशानुसार दोनों ने समीपवर्ती ग्राम के लिए प्रस्थान किया। मार्ग में उन्होंने बड़े-बड़े पदचिह्नों को देखा।
विमृश्यकारी शिष्य ने पूछा-ये किसके पदचिह्न हैं ? अविमृश्यकारी शिष्य ने तत्काल कहा-इसमें पूछने की क्या बात है ? ये हाथी के पैर हैं ? विमृश्यकारी शिष्य बोला-मित्र ! ये पैर हाथी के नहीं, हथिनी के हैं। वह बाईं आंख से कानी है । उस पर कोई रानी बैठी है । वह सधवा है, गर्भवती है । उसके एक-दो दिन में ही प्रसव होने वाला है और उसके पुत्र होगा।
अविमृश्यकारी शिष्य ने पूछा-ये सारी बातें तुम्हें कैसे ज्ञात हुई ? विमृश्यकारी शिष्य ने कहा-ज्ञान का सार है प्रत्यय, विश्वास । यह सारी घटना प्रत्यय से ही स्पष्ट हो जाएगी।
दोनों शिष्य अपनी मंजिल के निकट पहुंचे। उन्होंने देखा गांव के बाहर तालाब के किनारे रानी ठहरी हुई थी। वहां हथिनी खड़ी थी, वह बायीं आंख से कानी थी। इस बीच दासी ने आकर सूचना दी कि महारानी ने पुत्र को जन्म दिया है, बधाई दीजिए।
विमृश्यकारी शिष्य ने अविमृश्यकारी शिष्य से कहा-क्या तुमने दासी के वचन पर चिन्तन किया? अविमृश्यकारी शिष्य बोला-मैंने सब कुछ चिन्तन कर लिया, तुम्हारा ज्ञान सही है।
दोनों ने हाथ-पैर धोए । तालाब के किनारे वटवृक्ष के नीचे विश्राम के लिए बैठे। उन्होंने एक वृद्ध महिला को देखा जिसके मस्तक पर जल से भरा हुआ घड़ा था। उसने दोनों शिष्यों की आकृति को देखा और सोचा-निश्चित रूप से ये दोनों विद्वान् हैं । इसलिए इनको देशान्तर गए हुए पुत्र के बारे में पूछना चाहिए और उसने पूछ लिया-मेरा पुत्र कब आएगा? ऐसा पूछते ही उसके सिर से गिरकर घड़ा फूट गया। शीघ्र ही अविमृश्यकारी शिष्य बोला-तेरा पुत्र मर गया है। विमृश्यकारी शिष्य-मित्र ! ऐसा मत कहो । इसका पुत्र घर पहुंच गया है। बुढ़िया मां ! घर जाओ, तुम्हारा पुत्र तुम्हें मिल जाएगा।
विमृश्यकारी शिष्य के ऐसा कहने पर बुढ़िया उसे सैकड़ों आशीर्वाद देती हुई अपने घर गई, देखा पुत्र घर आया हुआ है। पुत्र ने प्रणाम किया । बुढ़िया ने आशीर्वाद दिया और नैमित्तिक का वृत्तांत बताया। पुत्र को पूछकर बुढ़िया वस्त्र युगल व कुछ रुपये लेकर विमृश्यकारी शिष्य के पास गई और उसे भेंट किया। अविमृश्यकारी शिष्य ने खेदपूर्वक सोचा-निश्चित ही गुरु ने मुझे अच्छी तरह नहीं पढ़ाया है। अन्यथा जैसा यह जानता है वैसा मैं क्यों नहीं जानता ?
कार्य सम्पन्न कर दोनों गुरु के पास आए। गुरु के दर्शन करते ही विमृश्यकारी शिष्य ने बद्धाञ्जलि सिर झुकाकर बहुमानपूर्वक आनन्दाश्रुपूरित नयनों से गुरु के चरणों में प्रणाम किया। अविमृश्यकारी शिष्य शैलस्तम्भ की तरह खड़ा रहा। १. (क) आवश्यकचूणि, पृ. ५५३
(घ) नन्दी मलयगिरीया वृत्ति, प. १६०,१६१ (ख) आवश्यक नियुक्ति हारिभद्रीया वृत्ति, पृ. २८२,२८३ (च) नन्दी हारिभद्रीया वृत्ति टिप्पणकम्, पृ. १३७ (ग) आवश्यकनियुक्ति मलयगिरीया वृत्ति, प. ५२३,५२४ (छ) आवश्यकनियुक्ति दीपिका, प. १८०
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