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प्र० ५० १२५ १२७ ०१-३, दि० १३-१७
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है। श्रुतज्ञानी पुरुष परमाणु स्कन्धों के सूक्ष्म प्रकारों को जानता है । वह उसका अपना ज्ञान नहीं है किन्तु ग्रन्थों के आधार पर जानता है ।
द्रव्यतः श्रुतज्ञानी श्रुतज्ञान में उपयुक्त होकर सूत्र विज्ञप्ति के अनुसार सब द्रव्यों को जानता है, देखता है । इस प्रसंग में 'देखता है' ( पासति ) यह विमर्शनीय है । शास्त्रीय ज्ञान जाना जा सकता है किन्तु देखा नहीं जा सकता। इसलिए देखा जाता हैइस कथन में विरोधाभास है ।
चूर्णिकार ने बतलाया है कि श्रुतज्ञानी इन्द्रिय सीमा से परे मेरु पर्वत आदि का श्रुतज्ञान के आधार पर आलेखन करता हैं। वह अदृष्ट का आलेखन नहीं कर सकता । प्रज्ञापना में श्रुतज्ञान की पश्यत्ता का विधान किया गया है। वास्तव में 'पश्यति' का अर्थ चक्षु से देखना अथवा साक्षात्कार करना नहीं है। यहां 'पास' का प्रयोग पश्यत्ता के अर्थ में है । इसका तात्पर्य है दीर्घकालिक उपयोग | श्रुतज्ञान का संबंध मन से है । मानसिक ज्ञान दीर्घकालिक अथवा त्रैकालिक होता है इसलिए यहां 'पास' का प्रयोग संगत है ।
चूर्णिकार ने बतलाया है कि सम्पूर्ण दशपूर्वी से अल्पज्ञान वाले श्रुतज्ञानी हैं उनमें सब द्रव्यों के ज्ञान और पश्यत्ता भाज्य हैं - उनमें से कुछ श्रुतज्ञानी सब द्रव्यों को जानते देखते हैं और कुछ श्रुतज्ञानी सब द्रव्यों को न जानते हैं न देखते हैं । ' जिनभद्रगणी ने प्रस्तुत सूत्र ( नन्दी सूत्र ) के 'न पासइ' पाठ को स्वीकार किया है। द्वारा सम्मत है । प्रज्ञापना के आधार पर पश्यत्ता को भी मान्य किया है ।
उनके अनुसार 'पासई' पाठ मतान्तर
१६. ( गाथा १ )
अक्षर आदि श्रुतज्ञान की जानकारी के लिए द्रष्टव्य सूत्र ५५ से १२७ ।
१७. (गाया २,३ )
प्रस्तुत दो गाथाओं में श्रुतज्ञान के ग्रहण का उपाय ( ग्रहण विधि) बतलाया गया है। चूर्णिकार ने बतलाया है कि गणधर द्वारा प्रणीत द्वादशाङ्ग तथा प्रत्येकबुद्ध द्वारा भाषित ग्रन्थों का अध्ययन गहन प्रतीत हुआ । उस समय आचार्यों ने चिन्तन किया कि काल के प्रभाव से बल, बुद्धि, मेधा और आयु की हानि हो रही है इसलिए पूर्ववर्ती आगम ग्रन्थों से निर्यूहण कर सरल ग्रन्थों का निर्माण करना चाहिए। अनुयोगद्वार, नन्दी, प्रज्ञापना आदि ग्रन्थ इसी निर्यूहण विधि से रचे गए हैं।" उनके अध्ययन की विधि निम्नवर्ती गाथाओं में बतलाई जा रही है ।
बुद्धि के आठ गुण
१. शुश्रूषा – गुरु के मुख से सुनने की इच्छा ।
२. प्रतिपृच्छा - प्रश्न के द्वारा अधीत विषय को स्पष्ट करना ।
३. श्रवण - अधीत ग्रन्थ के अर्थ का ज्ञान करना ।
४. ग्रहण - श्रुत अर्थ का अवग्रह करना ।
५. ईहा अवगृहीत अर्थ की ईहा करना, पर्यालोचन करना, अपनी बुद्धि से उत्प्रेक्षा करना । ६. अपोह अन्वय और व्यतिरेकी धर्मों के पर्यालोचना के आधार पर विषय का निर्णय करना ।
७. धारणा अपोह द्वारा निश्चित विषय का धारण करना ।
१. (क) नन्दी चूर्ण, पृ. ८२ : अभिण्णदसपुव्वादियाण जाव सुतनाणकेवली ते पडुच्च भणितं । दव्वतो णं सुतनाजोव गुणिलीए सव्यदव्यादि जागति पासति य ।
(ख) हारिभद्रीया वृत्ति, पृ. ९५
(ग) मलयगिरीया वृत्ति प. २८५
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२. नन्दी चूर्ण, पृ. ८२ णणु पासइ त्ति विरोहो ? उच्यतेजम्हा अविद्वाण वि मेरुमादियाण सुतणाणपासणताए आगारमालिह ण यादिखि पञ्चबनाए व भगिता
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सुतणाणपासणत त्ति ण विरोधो ।
३. वही, पृ. ८२ : आरतो पुण जे सुतणाणी ते सव्वदस्यनाणपासणतासु भइता । सा य भयणा मतिविसेसतो जाणितव्वा ।
४. विशेषावश्यकभाष्य, गा. ५५३ से ५५५
५. नन्दी चूर्णि, पृ. ८३ : एत्थं आयारादिगणधरागमपणीतस्स पत्तेगबुद्धभासितस्स वा तहाकालाणुभावतो बलबुद्धि-मेधाऽऽहाणि जागिण मे प सुतभावा आरिएहि निज्जूढा तेसु गहणविही दंसिज्जइ ।
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