Book Title: Agam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Nandi Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 206
________________ प्र०५, सू०६२-१०१, टि०५,६ १८१ परिकर्म के मूलभेद और उत्तरभेद विच्छिन्न हैं। उनकी सूत्र और अर्थ परम्परा दोनों उपलब्ध नहीं है। चूणिकार ने इतना संकेत किया है कि अपने-अपने सम्प्रदाय के अनुसार वक्तव्य है।' मूल परिकर्म सात है। उनमें छह स्वसामयिक हैं, स्वसिद्धान्त के अनुसार हैं। सातवा आजीवक परम्परा के अनुसार है। छह स्वसामयिक परिकर्मों की व्याख्या चार नयों के आधार पर की जाती है। सातवें परिकर्म की व्याख्या तीन राशियों के आधार पर की जाती है। नय की अनेक परम्पराएं हैं। भगवती' तथा कुन्दकुन्द के साहित्य' में द्रव्याथिक और पर्यायाथिक ये दो नय मिलते हैं। उमास्वाति के वर्गीकरण में नय पांच है।' सिद्धसेन के वर्गीकरण में नय छह हैं। अनुयोगद्वार आदि अनेक ग्रन्थों में सात नय की परम्परा प्रसिद्ध है।' प्रस्तुत आगम में चार नय का उल्लेख है। चूर्णिकार ने चार नय ये बतलाए हैं-संग्रह, व्यवहार, ऋजसूत्र और शब्द । आजीवक तीन राशियों और उनकी प्रज्ञापना के लिए तीन नय स्वीकार करते हैं। चूर्णिकार ने तीन राशियों के कुछ उदाहरण दिए हैं I. १. जीव २. अजीव ३. जीवाजीव II. १. लोक २. अलोक ३. लोकालोक III १. सत् २. असत् ३. सदसत्। तीन नय इस प्रकार हैं१ द्रव्यार्थिक २. पर्यायाथिक ३. उभयार्थिक आजीवक एक श्रमण सम्प्रदाय है । भगवान् महावीर के समय वह एक शक्तिशाली संघ था। दृष्टिवाद में परिकर्म के लिए उनकी राशियों और तीन नयों का प्रयोग एक आश्चर्यकारी घटना है। इससे यह संकेत मिलता है कि पार्श्व और महावीर की परम्परा आजीवक परम्परा को तथा आजीवक परम्परा जैन परम्परा को प्रभावित करती रही है। सातवां परिकर्म आजीवक की शिक्षा से संबद्ध है । इसका स्रोत देवर्धिगणी को किसी प्राचीन ग्रन्थ से मिला अथवा अनुश्रुति से मिला? यह एक विमर्शनीय विषय है। अन्यत्र कहीं भी ऐसा उल्लेख प्राप्त नहीं है। धवला और जयधवला में परिकर्म की १. नन्दी चूणि, पृ. ७२ : तं च परिकम्मसुतं सिद्धसेणियापरिकम्मादिमूलभेदयो सत्तविहं, उत्तरभेदतो तेसीतिविहं। मातुयपदादी । तं च सव्वं समूलुत्तरभेदं सुत्तत्थतो वोच्छिण्णं, जहागतसंप्रदातं वा वच्चं । २. वही, पृ. ७२ : एतेसि सत्तण्हं परिकम्माणं छ आदिमा परिकम्मा ससमइका, स्वसिद्धांतप्रज्ञापना एवेत्यर्थः । आजीविकापासंडत्था गोसालपवत्तिता, तेसि सिद्धतमतेण चुताऽचुतसहिता सत्त परिकम्मा पण्णविज्जंति । ३. अंगसुत्ताणि, भाग २, भगवई, १८१०७.११० ४. (क) नियमसार, गा. १९ (ख) प्रवचनसार, २२२२ ५. तत्त्वार्थाधिगम सूत्रम्, १२३४ ६. सन्मति प्रकरण, ११५ ७. अणुओगदाराई, सू. ७१५ ८. नन्दी चूणि, पृ. ७२,७३ : इदाणि परिकम्मे णचिता णेगमो दुविहो-संगहितो असंगहितो य, संगहितो संगहं पविट्ठो, असंगहितो ववहारं, तम्हा संगहो ववहारो रिजुसुतो सद्दाइया य एक्को, एवं चतुरो गया। ९. वही, पृ. ७३ : ते चेव आजीविका तेरासिया भणिता । कम्हा ? उच्यते----जम्हा ते सर्व जगं त्यात्मकं इच्छंति, जहा-जीवो अजीवो जीवाजीवश्च, लोए अलोए लोयालोए, संते असंते संतासंते एवमादि। णचिताए वि ते तिविहं णयमिच्छंति, तं जहा-दवट्टितो पज्जवट्टितो उभयद्वितो, अतो भणियं-'सत्त तेरासियाई' ति सत्त परिकम्माई तेरासियपासंडत्था तिविधाए णचिताए चितयतीत्यर्थः। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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