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नंदी
व्याख्या भिन्न प्रकार से मिलती है। परिकर्म के पांच अर्थाधिकार अथवा भेद बतलाए गए हैं-१. चन्द्रप्रज्ञप्ति २. सुरप्रज्ञप्ति ३. जम्बुद्वीपप्रज्ञप्ति ४.द्वीपसागरप्रज्ञप्ति ५. व्याख्याप्रज्ञप्ति ।
सूत्र १०२-१०३ ७. (सूत्र १०२-१०३)
सूत्र के बावीस प्रकार बतलाए गए हैं। चूणिकार के अनुसार इन सूत्रों से सर्व द्रव्य, सर्व पर्याय, सर्व नय और सर्व भङ्गों की विकल्पना जानी जाती है । ये पूर्वगत श्रुत और उसके अर्थ के सूचक हैं । इसलिए इन्हें सूत्र कहा गया है।'
इन बावीस सूत्रों के अध्ययन की चार पद्धतियां थीं१. छिन्नछेद नय २. अच्छिन्नछेद नय ३. तीन नय ४ चार नय
इनमें दो पद्धतियां (पहली और चौथी) स्वसमय की सुत्र परिपाटी के अनुसार हैं। दूसरी और तीसरी दो पद्धतियां आजीवक सूत्र परिपाटी का अनुसरण करती हैं। १. छिन्नछेद नय
जिस ग्रन्थ का प्रत्येक सूत्र अथवा श्लोक सूत्रपाठ और अर्थ की दृष्टि से स्वतन्त्र होता है, दूसरे श्लोक अथवा अर्थ की अपेक्षा नहीं रखता, उस शैली का नाम छिन्नछेद नय है । उदाहरण के लिए
धम्मो मंगलमुक्किळं, अहिंसा संजमो तबो।
देवा वि तं नमसंति, जस्स धम्मे सया मणो ।' यह प्रलोक स्वतन्त्र है। उत्तरवर्ती श्लोकों की अपेक्षा नहीं रखता। २. अच्छिन्नछेद नय
'धम्मो मंगलमुक्किट्ठ..' इसकी अर्थ योजना द्वितीय आदि श्लोकों से करें, द्वितीय आदि श्लोकों की अर्थ योजना प्रथम श्लोक से करें- इस पद्धति का नाम अच्छिन्नछेद नय है।'
इन बावीस सूत्रों का चिन्तन तीन नयों और चार नयों-इन दोनों पद्धतियों से किया जाता है। इस प्रकार चारों पद्धतियों के आधार पर ये बावीस सूत्र अठ्यासी बन जाते हैं। इनका सूत्र पाठ और अर्थ पाठ दोनों ही विच्छिन्न है।'
धवला और जयधवला में सूत्र का प्ररूपण सर्वथा भिन्न है। उनके अनुसार सूत्र विभाग में जीव के स्वरूप का वर्णन है तथा नास्तिकवाद, क्रियावाद, अक्रियावाद, ज्ञानबाद, वैनयिकवाद आदि वादों तथा अनेक प्रकार के गणित का निरूपण है।'
देवधिगणी का अस्तित्वकाल वीर निर्वाण की दसवीं शताब्दी है। जिनसेन और वीरसेन का अस्तित्वकाल उनसे
१. (क) षटखण्डागम, पुस्तक १, पृ. ११० (ख) कषायपाहुड़, पृ. १५० : परियम्मे पंच अत्याहियारा
-चंदपण्णत्ती सूरपण्णत्ती जंबूदीवपण्णत्ती दीव
सायरपण्णत्ती वियाहपण्णत्ती चेदि । २. नन्दी चूणि, पृ. ७४ : ताणि य सुत्ताई सम्वदव्वाण सब्वपज्जवाण सव्वणताण सव्वभंगविकप्पाण य दंसगाणि, सव्वस्स य पुव्वगतसुतस्स अत्थस्स य सूयग ति, अतो ये सूयणतातो सुत्ता भणिता जहाभिधाणत्थाते । ते य इदाणि
सुत्तऽत्थतो वोच्छिण्णा, जहागतसंप्रदायतो वा बच्चा। ३. दसवेआलियं, ११ ४. नन्दी चूणि, पृ. ७४ : अच्छिन्नछेदणता........"अच्छिन्न
छेदणतो जहा---एसेव दुमपुफियपढमसिलोगो अस्थतो
बितियाइसिलोगे अवेक्खमाणो, बितियादिया य पढम अच्छिन्नच्छेदणताभिप्पाययो भवति । एवं पि बावीसं सुत्ता अक्खररयणविभागट्टिता वि अत्थयो अण्णोण्णमवेक्खमाणा
अच्छिण्णच्छेदणयट्ठित ति भण्णंति। ५. वही, पृ. ७४ : णचिताए वि बावीसं चेव सुत्ता , 'तेरासियाणं तिकण इयाई' ति त्रिकनयाभिप्रायतो चित्यंतेत्यर्थः। तहा ससमये वि णचिताए बावीसं चेव सुत्ता चउक्कणइया। एवं चतुरो बावीसातो अट्ठासीति सुत्ता
भवंति। ६. वही, पृ. ७४ : ते य इदाणि सुत्त -ऽत्थतो वोच्छिण्णा। ७. (क) षटखण्डागम, पुस्तक १, पृ. १११,११२ (ख) कषायपाहु, पृ. १३३,१३४
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