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प्र० ५, सूत्र १०४-१२२, टि०८-१०
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सूत्र ११९-१२१ ६. (सूत्र ११६-१२१)
प्रस्तुत आगम में अनुयोग के दो विभाग बतलाए गए हैं१. मूलप्रथमानुयोग-इसमें अर्हत् का जीवन वर्णन है। २. गण्डिकानुयोग (कण्डिकानुयोग)-इसमें कुलकर आदि अनेक व्यक्तियों के जीवन का वर्णन है ।
सामान्यत: इनमें कोई अंतर दिखाई नहीं देता । हरिवंश गण्डिका, अवसर्पिणी गण्डिका, उत्सर्पिणी गण्डिका और चित्रान्तर गण्डिका इनके अध्ययन से पता चलता है कि गण्डिकानुयोग केवल जीवन का वर्णन करने वाला ग्रन्थ नहीं है किन्तु वह इतिहास ग्रन्थ है।
चूर्णिकार तथा मलयगिरि ने गण्डिका का अर्थ खण्ड किया है। ईख के एक पर्व से दूसरे पर्व का मध्यवर्गीय भाग गण्डिका कहलाता है वैसे ही जिस ग्रन्थ में एक व्यक्ति का अधिकार होता है उस ग्रन्थ की संज्ञा गण्डिका अथवा कण्डिका है।'
दिगम्बर साहित्य में अनुयोग के ये ही दो विभाग किए गए हैं। शब्द विमर्श
चित्रान्तरगण्डिका-यह अनेक अर्थवाली गण्डिका होती है। उदाहरणस्वरूप प्रथम तीर्थंकर ऋषभ और द्वितीय तीर्थकर अजित के अंतराल में जो घटनाएं घटित हुई वह ग्रन्थ चित्रान्तर गण्डिका है।' चित्रान्तर गण्डिका को समझाने के लिए चूर्णिकार ने कुछ गाथाओं को उद्धृत किया है।'
सूत्र १२२ १०. (सूत्र १२२)
चूलिका को आज की भाषा में परिशिष्ट कहा जा सकता है। चूर्णिकार ने बताया है कि परिकर्म, सूत्र, पूर्व और अनुयोग में जो नहीं बतलाया है वह चूलिका में बतलाया गया है।' हरिभद्रसूरि के अनुसार चूलिका में उक्त और अनुक्त दोनों का ही उल्लेख किया गया है।
आद्यवर्ती चार पूर्वो के अंतिम भाग में चूलिकाएं हैं। शेष पूर्वो के नहीं है। ये श्रुत रूपी पर्वत के चूला (चोटी) के समान हैं इसलिए इन्हें चूलिका कहा गया है।' इनकी संख्या का निर्देश इस प्रकार है
१. उत्पाद पूर्व-४ २. अग्रेयणीय पूर्व-१२ ३. वीर्यप्रवाद-८ ४. अस्तिनास्तिप्रवाद-१०
हरिभद्रसूरि और मलयगिरि ने चूलिका की संख्या निर्देश के लिए एक-एक गाथा का निर्देश किया है।' १. (क) नन्दी चूणि, पृ. ७७ : इक्खुमादिपर्वगंडिकावत्
सूत्र-पूर्वानुयोगोक्तानुक्तार्थसङ्ग्रहणपरा ग्रन्थपद्धतयश्चूडा एक्काहिकारत्तगतो गंडियाणुओगो भणितो गंडिका इति–खंडं ।
६. नन्दी चूणि, पृ. ७९ : ताओ य चूलाओ आदिल्लपुब्वाण (ख) मलयपिरीया वृत्ति, प० २४२ : इक्ष्वादोनां पूर्वापर
चतुण्हं जे चूलवत्थू भणिता ते चेव सव्वुवरि ढविता पढिपरिच्छन्नो मध्यभागो गण्डिका, गण्डिकेव गण्डिका
ज्जंति य, अतो ते सुयपव्वयचूला इव चूला। तेसि जहएकार्थाधिकार ग्रन्थपद्धतिरित्यर्थः ।
क्कमेण संखा चतु बारस अट्ठ दस य भवंति । २. नन्वी चूणि, पृ. ७७ : "चित्तंतरगंडिय' त्ति चित्रा इति ७. (क) हारिभद्रीया वृत्ति, पृ. ९३ : अनेकार्था, अंतरे इति-उसभ-अजियंतरे ।
चउ बारसट्ठ दस या हवंति चूडा चउण्ह पुवाणं । ३. वही, पृ.७७,७८
एए य चूलवत्थू सव्वुरि किल पढिज्जति ॥ ४. वही, पृ. ७९ : दिद्विवाते जं परिकम्म-सुत्त-पुदव-अणुयोगे (ख) मलयगिरीया वृत्ति, प. २४६ : यण भणितं तं चूलासु भणितं ।
चत्तारि दुवालस अट्ठ चेव दस चेव चूलवत्थूणि । ५. हारिभद्रीया वृत्ति, पृ. ९३ : इह दृष्टिवादे परिकर्म
आइल्लाण चउण्हं सेसाणं चूलिया नत्थि ।
इति ।
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