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२. बुद्धि के आठ गुणों से जो आगम शास्त्र का ग्रहण दृष्ट है। उसे धीर, पूर्व विशारद श्रुतज्ञान की उपलब्धि कहते हैं।
पांचवां प्रकरण : द्वादशांग विवरण : सूत्र १२६,१२७ आगम-सत्थग्गहणं,
आगम-शास्त्रग्रहणं, जं बुद्धिगुमेहं अहिं दिळं। यद् बुद्धिगुणैः अष्टभिः दृष्टम् । बिति सुयनाणलंभ,
ब्रुवते श्रुतज्ञानलाभ, तं पुवविसारया धीरा ॥२॥ तत् पूर्वविशारदाः धीराः॥ सुस्सूसइ पडिपुच्छइ,
शुश्रूषते प्रतिपृच्छति, सुणइ गिण्हइ य ईहए यावि ।
शृणोति गृह्णाति चेहते चापि । ततो अपोहए वा,
ततो अपोहते वा, धारेइ करेइ वा सम्मं ॥३॥
धारयति करोति वा सम्यक् । मूअं हुंकारंवा,
मूकं हुंकारं वा, बाढक्कार पडिपुच्छ वीमंसा । बाढंकारं प्रतिपच्छा विमर्शः। तत्तो पसंगपारायणं च,
ततः प्रसंगपारायणञ्च, परिणि? सत्तमए ॥४॥
परिनिष्ठा सप्तमके ॥
आठ गुण ये हैं -
३. १. सुनने की इच्छा २. प्रतिपृच्छा ३. श्रवण ४. ग्रहण ५. ईहा ६. अपोह ७. धारणा ८. सम्यक क्रिया।
श्रवण-विधि४. पहले मूकभाव से सुनता है, हुंकार करता है फिर बाढक्कार (साधु-साधु कहता है),प्रतिपृच्छा करता है, विमर्श अथवा मीमांसा करता है, तत्पश्चात् प्रसंग का पारायण और सातवीं बार में उसकी परिनिष्ठा हो जाती
सुत्तत्थो खल पढमो, बोनो निज्जुत्तिमीसओ भणिओ। तइओ य निरवसेसो, एस विही होइ अणुओगे ॥५॥
सेत्तं अंगपविठं । सेतं सुयनाणं । सेतं परोक्खं । सेत्तं नंदी॥
सूत्रार्थः खलु प्रथमः, द्वितीयः नियुक्तिमिश्रको भणितः । तृतीयश्च निरवशेषः, एष विधिर्भवति अनुयोगे ॥
तदेतद् अङ्गप्रविष्टम् । तदेतत् श्रुतज्ञानम् । तदेतत् परोक्षम् । सा एषा नन्दी।
५. अनुयोग (व्याख्या) की विधि इस प्रकार है। प्रथम बार में सुत्र और अर्थ का बोध, दूसरी बार में नियुक्ति सहित सूत्र और अर्थ का बोध, तीसरी बार में समग्रता का बोध ।" वह अंगप्रविष्ट है । वह श्रुतज्ञान है। वह परोक्ष है । वह नन्दी है।
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