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नंदी
द्वादशाङ्ग का आदि है । और प्रवचन की सम्पन्नता का काल उसका पर्यवसान है । प्रज्ञापनीय भाव की अपेक्षा से भी द्वादशाङ्ग सादि सपर्यवसित होता है । जिनभद्रगणि ने इसके अनेक हेतु बतलाए हैं । प्रज्ञापक की अपेक्षा द्वादशाङ्ग सादि सपर्यवसित होता है ।
जिनभद्रगणि ने उसके चार हेतु बतलाए हैं२. श्रुत का उपयोग २. स्वर, ध्वनि ३. प्रयत्न-तालु आदि का व्यापार ४. आसन।
ये प्रज्ञापक के भाव-पर्याय बदलते रहते हैं । इस परिवर्तन की अपेक्षा द्वादशाङ्ग को सादि सपर्यवसित कहा जा सकता है। व्याख्या ग्रन्थों में इनका ही अनुसरण किया गया है।'
क्षायोपशमिक भाव नित्य है । उसकी अपेक्षा द्वादशाङ्ग अनादि अपर्यवसित है । भवसिद्धिय-जिसमें सिद्ध होने की योग्यता हो । अभवसिद्धिय-जिसमें सिद्ध होने की योग्यता न हो।
सूत्र ७० ७. (सूत्र ७०)
प्रस्तुत प्रकरण में अक्षर के दो प्रकार विवक्षित है-१. ज्ञान २. अकार आदि लिप्यक्षर ।
केवलज्ञान का उत्पन्न होने के बाद क्षरण नहीं होता इसलिए वह अक्षर है । ज्ञान और ज्ञेय में पारस्परिक संबंध है। इसलिए ज्ञान ज्ञेय प्रमाण होता है।'
प्रस्तुत सूत्र में अक्षर अथवा केवलज्ञान का प्रमाण ज्ञेय के आधार पर समझाया गया है। आकाश के एक प्रदेश में अगुरुलघुपर्याय अनन्त होते हैं । लोकाकाश और अलोकाकाश दोनों को मिलाकर आकाश के प्रदेश अनन्त हैं। सब आकाश प्रदेशों को सब पर्यायों से अनन्त गुणित करने पर जो प्रमाण प्राप्त होता है वह पर्याय का प्रमाण होता है।'
::: एक आकाश प्रदेश-अनन्त अगुरुलघपयर्याय .:. सर्व आकाश प्रदेश सर्वाकाश अनन्त अगुरुलघुपर्याय
=सर्वाकाश पर्याय
=अक्षर कल्पना करें सर्वजीव राशि २ है २४२=४ सर्व पुद्गल द्रव्य ४४४=१६ सर्वकाल १६४१६-२५६ सर्वाकाश श्रेणि २५६४ २५६ =६५५३६ धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय द्रव्य का अगुरुलघु गुण ६५५३६४६५५३६८४२९४९६७२९६ एक जीव का अगुरुलघुगुण ४२९४९६७२९६४४२९४९६७२९६=१८४४६७४४०७३७०९५५१६१६ सूक्ष्म निगोद लब्ध्यपर्याय का लब्ध्यक्षर ज्ञान एक-एक आकाश प्रदेश में जितने अगुरुलघुपर्याय होते हैं उन सबको एकत्र पिण्डित करने पर इतने पर्याय होते हैं । अक्षर
१. विशेषावश्यक, भाष्य गा, ५४७ :
उवओग-सर-पयत्ता थाणविसेसा य होंति पण्णवए। गइ-ट्ठाण-भेय-संघाय-वण्ण-सद्दाइ भावेसु ॥ २. (क) नन्दी चणि, पृ. ५२ (ख) हारिभद्रीया वृत्ति, पृ. ६७ (ग) मलयगिरीया वृत्ति, प. १९८
३. (क) प्रवचनसार, १२३ :
आदा णाणपमाणं णाणं णेयप्पमाणमुद्दिठें।
गेयं लोयालोयं तम्हा गाणं तु सव्वगयं ॥ (ख) नन्दी चूणि, पृ. ५२ : तं च केवलं गेये पवत्तइ, तस्स
वि परिमाणं इमेणं चैव विधिणा भाणितव्वं । ४. नन्दी चूणि, पृ. ५२
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