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प्र० ४ ०६५-६६, ४०५,६
२. सम्पत मिथ्यादृष्टि के लिए सम्पद्भुत मिध्यावृत है।
३. मिथ्याश्रुत - सम्यकदृष्टि के लिए मिथ्याश्रुत सम्यक्श्रुत है ।
४. मिव्यात मिध्यादृष्टि के लिए मिध्यात मिध्यात है।
द्वितीय और चतुर्थ विकल्प साक्षात् निर्दिष्ट है । शेष दो विकल्प चूर्णिकार द्वारा निर्दिष्ट है ।
श्रुत सम्यक् है उसका अध्येता सम्यकदृष्टि है वह अपने सम्यक्त्व गुण के कारण सम्यक्श्रुत को सम्यक् रूप में ग्रहण करता है । यह प्रथम विकल्प का आशय है ।
दूसरे विकल्प का आशय यह है कि शर्करा युक्त दूध पित्त ज्वर वाले व्यक्ति के लिए अनुकूल नहीं होता वैसे ही मिध्यादृष्टि सम्यक्त को मिथ्यात्व के कारण मिथ्या रूप में परिणत कर लेता है। इसलिए सम्यक्क्षुत उसके लिए मिथ्या हो जाता है ।
सम्यकदृष्टि मनुष्य मिथ्याश्रुत का सम्यक् रूप में ग्रहण करता है अतः उसके लिए मिध्याश्रुत सम्यक् श्रुत बन जाता है । मिथ्या अभिनिवेश के कारण मिथ्याबुत मिध्यादृष्टि के लिए मिथ्या ही रहता है। मिध्यात के ग्रंथों की जानकारी के लिए द्रष्टव्य अणुओगदारा सू. ४९ का टिप्पण ।
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क्षत्र की दृष्टि से
६. ( सूत्र ६८, ६९ )
प्रस्तुत आलापक में द्वादशाङ्गी के कालमान पर नय दृष्टि से विचार किया गया है। जैन दर्शन प्रत्येक ग्रंथ को पौरुषेय मानता है । पुरुषकृत कोई भी रचना अनादि अनंत नहीं हो सकती। इस सत्य को व्युच्छित्तिनय की दृष्टि से स्वीकार किया गया है। द्वादशी का प्रतिपाद्य है सत्य अथवा अस्तित्व सत्य त्रैकालिक नित्य होता है। वह कभी विलुप्त नहीं होता अस्थितिनय की दृष्टि से उसे अनादि अपर्यवसित माना गया है।
उत्तरवर्ती जैन दार्शनिकों ने वेद के अपरत्व का निरसन किया है किन्तु अव्युति और व्युत्तिन की दृष्टि से अपौरुषेयत्व और पौरुषेयत्व का समन्वय किया जा सकता है।"
द्रव्य की दृष्टि से
एक पुरुष की अपेक्षा श्रुत के सादि सपर्यवसित होने के अनेक हेतु हो सकते हैं। जिनभद्रगणि ने इसके पांच हेतु बतलाए हैं, नंदी चूर्णिकार और टीकाकारों ने भी उनका अनुसरण किया है-
१. मिथ्यादर्शन में गमन
२. भवान्तर में गमन
३. केवलज्ञान की उत्पत्ति ४. रोग
५. प्रमाद अथवा विस्मृति ।
सूत्र ६८,६९
महाविदेह में श्रुत की निरंतरता रहती है उसकी अपेक्षा द्वादशाङ्ग अनादि अपर्यवसित है ।
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काल की दृष्टि से
काल की अपेक्षा महाविदेह में उत्सर्पिणी अवसर्पिणी का विभाग नहीं होता। इस अपेक्षा से नोउत्सर्पिणी नोव में द्वादशाङ्ग अनादि अपर्यवसित है ।
१. स्याद्वादमंजरी, पृ. ९०,९९
२. (क) विशेषावश्यक भाष्य, गा. ५४०
भाव की दृष्टि से
भाव की अपेक्षा भगवान महावीर ने द्वादशाङ्ग के अर्थ का प्रज्ञापन जिस काल - पूर्वाह्न, अपराह्न, दिन, रात में किया, वह
तर केवल-गेसम्म यमायमाणा नासो । आह किमत्थं नासs कि जीवाओ तयं भिण्णं ॥
(ख) नन्दी चूर्ण, पृ. ५१ : सपज्जवसाणं देवलोगगमणातो,
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गेलणतो वा णट्ठे, पमादेण वा, केवलणाणुप्पत्तितो वा, मिच्छादंसणगमणतो वा सपज्जवसाणं । (ग) हारिभद्रया वृति, पृ. ६६ (घ) मलयगिरीया वृत्ति, प. १९६
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