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नंदी संज्ञी और मिथ्यादृष्टि जीव असंज्ञी होते हैं । मिथ्यात्व मोहनीय और श्रुतज्ञानावरण के क्षयोपशम से संज्ञीश्रुत की प्राप्ति होती है।'
मिथ्यात्व मोहनीय के उदय और श्रुताज्ञानावरण के क्षयोपशम से असंज्ञीश्रुत की प्राप्ति होती है । संज्ञी का श्रुत संज्ञीश्रुत असंज्ञी का श्रुत असंज्ञीश्रुत कहलाता है।
जैसे कुत्सित शील को अशील कहा जाता है वैसे ही मिथ्यात्व से कुत्सित होने के कारण संज्ञी को असंज्ञी कहा गया है। मिथ्यात्व के कारण उसका ज्ञान भी अज्ञान कहलाता है।' उक्त तीनों संज्ञाओं के आधार पर संज्ञी असंज्ञी का विभाग इस प्रकार होता हैसंज्ञा
असंज्ञी हेतुवादोपदेशिकी द्वीन्द्रिय से सम्मूच्छिम पञ्चेन्द्रिय
एकेन्द्रिय कालिक्युपदेशिकी समनस्क पंचेन्द्रिय
सम्मूच्छिम प्राणी दृष्टिवादोपदेशिकी सम्यक्दृष्टि
मिथ्यादृष्टि
संज्ञी
सूत्र ६५-६७ ५. (सूत्र ६५-६७)
सम्यक्श्रुत और मिथ्याश्रुत के विभाग के दो आधार हैं—१. ग्रंथकार २. स्वामित्व । केवली द्वारा प्रणीत श्रुत सम्यक्श्रुत है। मिथ्यादृष्टि द्वारा रचित श्रुत मिथ्याश्रुत है।
स्वामित्व की अपेक्षा द्वादशांग श्रृत चतुर्दशपूर्वी के लिए सम्यक्श्रुत है। चूणिकार और मलयगिरि ने त्रयोदशपूर्वी, द्वादशपूर्वी, एकादशपूर्वी इन अन्तरालवर्ती पूर्वधरों का भी उल्लेख किया है।'
जिनभद्रगणि ने अङ्गबाह्य श्रुत को भी सम्यक्श्रुत बतलाया है । यह उत्तरकालीन विकास है।'
अभिन्न दशपूर्वधर से नीचे आचारांग तक के सभी श्रुत स्थान सम्यक्दृष्टि स्वामी के लिए सम्यक्श्रुत है, मिथ्यादृष्टि स्वामी के लिए मिथ्याश्रुत है।
प्रस्तुत आगम में अङ्गबाह्य आगमों का विवरण दिया हुआ है फिर भी उसका सम्यकश्रुत के प्रकरण में उल्लेख नहीं है। हरिभद्र ने जिनभद्रगणि का अनुसरण किया है।
चूर्णिकार ने सम्यक्श्रुत और मिथ्याश्रुत के चार विकल्प बताए हैं१. सम्यक्श्रुत-सम्यक्दृष्टि के लिए सम्यक्श्रुत सम्यकश्रुत है।
१. नन्दी चूणि, पृ. ४७ : मिच्छत्तस्स सुतावरणस्स य खयो
वसमेणं कतेणं सण्णिसुतस्स लंभो भवति । २. वही, पृ. ४७ : तं खयोवसमियभावत्थं समद्दिष्टुिं सणि पडुच्च मिच्छाद्दिट्ठी असण्णी भणितो । सो य मिच्छत्तस्सुदयतो अस्सण्णी भवति, तस्स सुतं असण्णिसुतं । तं च सुतअण्णाणावरणखयोवसमेणं लब्भति । ३. (क) विशेषावश्यक भाष्य, गा. ५२०:
जह दुव्वयणमवयणं कुच्छियसीलं असीलमसईए।
भण्णइ तह नाणं पि हु मिच्छद्दिट्ठिस्स अण्णाणं ॥ (ख) नन्दी चूणि, पृ. ४८ (ग) हारिभद्रीया वृत्ति, पृ. ६१ ४. (क) विशेषावश्यक भाष्य, गा. ५३४ : ।
चोद्दस दस य अभिन्ने नियमा सम्मं तु सेसए भयणा ।
मइ-ओहीविवज्जासे वि होइ मिच्छं न उण सेसे ॥ ५. (क) नन्दी चूणि, पृ. ४९ : जो चोद्दसपुत्वी तस्स सामादि
यादि बिंदुसारपज्जवसाणं सव्वं नियमा सम्मसुतं, ततो ओमत्थगपरिहाणीए जाव अभिण्णदसपुव्वी
एताण वि सामाइयादि सव्वं सम्मसुतं सम्मगुणत्तणतो
चेव भवति । (ख) मलयगिरीया वृत्ति, प. १९३ ६. विशेषावश्यक भाष्य, गा. ५२७
अंगा-गंगपविळं सम्मसुयं लोइयं तु मिच्छसुयं ।
आसज्ज उ सामित्तं लोइय-लोउत्तरे भयणा ॥ ७. (क) नन्दी चूणि, पृ. ४९ : तेण परं ति अभिण्णदसपुव्वे
हितो हेट्ठा ओमत्थगपरिहाणीए जाव सामादितं ताव सव्वे सुतट्ठाणा सामिसम्मगुणत्तणतो सम्मसुतं भवति, ते चेव सुतढाणा सामिमिच्छगुणत्तणतो मिच्छसुतं
भवति । (ख) मलयगिरीया वृत्ति, ५० १९३ ८. हारिभद्रीया वृत्ति, पृ. ६४ ९. नन्दी चूणि, पृ. ५० सम्मसुतं सम्मदिट्ठिणो सम्मसुतं चेव १। सम्मसुतं मिच्छदिट्ठिणो मिच्छसुतं २ । मिच्छसुतं सम्मदिट्टिणो सम्मसुतं ३। मिच्छसुतं मिच्छदिद्विणो मिच्छसुतं ४।
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