________________
प्राणी
१२०
नंदो द्रष्टव्य यंत्र
अर्थोपलब्धि का प्रकार गर्भज पञ्चेन्द्रिय
विशुद्धतर सम्मूच्छिम पञ्चेन्द्रिय
अविशुद्ध चतुरिन्द्रिय
अविशुद्धतर त्रीन्द्रिय
उससे अविशुद्धतर द्वीन्द्रिय
उससे अविशुद्धतर एकेन्द्रिय
अविशुद्धतम' चूर्णिकार की व्याख्या का आधार जिनभद्रगणि का विशेषावश्यक भाष्य है। सूत्रकार ने कालिकी संज्ञा के छः कार्य बतलाए हैं-ईहा, अपोह, मार्गणा, गवेषणा, चिंता और विमर्श । १. ईहा- शब्द आदि अर्थ के विषय में अन्वय और व्यतिरेक धर्मों का विचार करना, जैसे—यह क्या है। २. अपोह-व्यतिरेक धर्म का परित्याग कर अन्वयी धर्म का अवधारण करना, अवाय, निश्चय, जैसे—यह खम्भा है। ३. मार्गणा-विशेष धर्म का अन्वेषण करना । मधुर और गंभीर ध्वनि के कारण यह शब्द शंख का है । ४. गवेषणा-स्वभावजन्य, प्रयोगजन्य, नित्य, अनित्य आदि का विचार करना गवेषणा है। ५. चिता-यह कार्य कैसे करना चाहिए? इस प्रकार का चिंतन करना। ६. विमर्श-त्याज्य धर्म का परित्याग व उपादेय धर्म के ग्रहण के प्रति अभिमुख होना।
चूणिकार ने ईहा आदि के वैकल्पिक अर्थ भी किए हैं। हरिभद्र और मलयगिरि" की व्याख्या चर्णिकार की व्याख्या से भिन्न रूप में उपलब्ध है।
चरक में मन के पांच कार्य निर्दिष्ट हैं-- १. चिन्त्य २. विचार्य ३. ऊह्य ४. ध्येय
५. संकल्प्य । इन्द्रिय और मन
प्रस्तुत आगम में इंद्रिय प्रत्यक्ष के प्रकरण में मन विवक्षित नहीं है । अर्थावग्रह आदि के प्रकरण में मन का उल्लेख है। नोइन्द्रिय प्रत्यक्ष में अवधि आदि अतीन्द्रिय ज्ञान विवक्षित है । अर्थावग्रह आदि के प्रकरण में मन के लिए नोइन्द्रिय शब्द का प्रयोग किया गया है।
नोइंद्रिय शब्द का प्रयोग अतीन्द्रिय ज्ञान और मन दोनों के अर्थ में किया गया है। अतीन्द्रिय अर्थ में नोइंद्रिय का प्रयोग है उसका अर्थ है अतीन्द्रिय ज्ञान । मन के अर्थ में नोइंद्रिय का अर्थ है आंशिक इंद्रिय ।
__ आगम साहित्य में बहुत बार संज्ञी और असंज्ञी शब्द का उल्लेख मिलता है । यह विभाग कालिकी संज्ञा के आधार पर किया गया है। जिस जीव में कालिकी सज्ञा का विकास होता है वह संज्ञी-समनस्क है । जिस जीव में कालिकी संज्ञा का विकास नहीं है वह असंज्ञी- अमनस्क है।' कालिकी संज्ञा के द्वारा अतीत की स्मृति, वर्तमान का चिंतन और भविष्य की कल्पना-इन तीनों कालखण्डों का ज्ञान होता है । इसलिए इसे दीर्घकालिकी संज्ञा भी कहा गया है। १. मलयगिरीया वृत्ति, प. १९०
४. हारिभद्रीया वृत्ति, पृ०६९ २. विशेषावश्यक भाष्य, गा०५१०
५. मलयगिरीया वृत्ति, प० १९० कालिसण्णि त्ति तओ जस्स तई सो य जो मणोजोग्गे
६. आयुर्वेदीय पदार्थ विज्ञान, पृ० १४३, चरकशारीरक १२० खंघेणंते घेत्तुं मन्नइ तल्लद्धिसंपण्णो ॥
७. नवसुत्ताणि, नंदी, सू.५ रूवे जहोवलद्धी चक्खमओ दंसिए पयासेण ।
८. वही, सू. ४२ तह छव्विहोवओगो मणदव्वपयासिए अत्थे ।
९. नन्दी चूणि, पृ. ४६ ३. नन्दी चूणि, पृ०४६
Jain Education Intemational
For Private & Personal Use Only
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org