________________
प्र० ४, सू०७१-७३, टि०८-१०
१२७ धवलाकार ने अक्षरों की संख्या पर विस्तार से विचार किया है।'
ये अक्षर संयोग विश्व की समस्त भाषाओं की आधारभूमि बनते हैं । कैलाशचंद्र शास्त्री ने इस विषय में विशेष अनुसंधान की आवश्यकता बतलाई है।
सूत्र ७२ ६. (सूत्र ७२)
पाठ रचना शैली के आधार पर आगम श्रुत के दो विभाग किए गए हैं१. गमिक २. अगमिक। गम के दो अर्थ होते हैं--- १. भङ्ग, गणित २. सदृश पाठ ।
जो रचना भङ्ग प्रधान अथवा सदृश्य पाठ प्रधान होती है उसकी संज्ञा गमिक है । इसका प्रतिपक्ष अगमिक है।' चूर्णिकार और वृत्तिकारों ने गमिक का अर्थ सदृश पाठ प्रधान रचना शैली किया है। उनके अनुसार आदि, मध्य और अवसान में कुछ विशिष्ट पाठ होता है और शेष पाठ की पुनरावृत्ति अनेक बार होती है। इस शैली का प्रयोग प्रायः दृष्टिवाद में होता है। अगमिक की रचना शैली विसदृश होती है। आचारांग आदि कालिक सूत्र में उस शैली का प्रयोग किया गया है।
अगमिक श्रुत में भी क्वचित्-क्वचित् सदृशपाठ की रचना शैली उपलब्ध है । उसका प्रयोग विशेष प्रयोजनवश हुआ है।'
नंदी सूत्र ८१ में चूणिकार तथा वृत्तिकारों ने बतलाया है-अभिधान और अभिधेय के कारण गम होते हैं। उन्होंने उदाहरण के द्वारा स्पष्ट किया है।'
सूत्र ७३ १०. (सूत्र ७३)
श्रुत के चौदह भेदों का विभाग एक साथ हुआ या कालक्रम से हुआ? श्रुत के ये चौदह भेद संकलित हैं या फिर किसी एक कर्ता के द्वारा इनका वर्गीकरण किया गया है ? यह सब अनुसंधेय है। इस विषय में स्पष्ट उल्लेख उपलब्ध नहीं है। द्वादशाङ्ग
१. षट्खण्डागम, पुस्तक १३, पृ. २४९ २. जैन साहित्य का इतिहास, पूर्व पीठिका, पृ. ६२१-६२४ ३. विशेषावश्यक भाष्य, गा. ५४९ :
भंगगणियाइ गमियं जं सरिसगमं च कारणवसेण । गाहाइ अगमियं खलु कालियसुयं दिट्ठिवाए वा॥ ४. (क) नन्दी चूणि, पृ. ५६ : आदि-मज्झ-ऽवसाणे वा
किंचिविसेसजुत्तं सुत्तं दुगादिसतग्गसो तमेव पढिज्जमाणं गमियं भण्णति, तं च एवंविहमुस्सण्णं दिढुिवातो । अण्णोण्णक्खराभिधाणद्वितं जं पढिज्जति
तं अगमियं, तं च प्रायसो आयारादि कालियसुतं । (ख) हारिभद्रीया वृत्ति, पृ. ६९ : इहाऽऽदि-मध्यावसानेषु
किञ्चिद् विशेषतः पुनस्तत्सूत्रोच्चारणलक्षणो गमः, ''अगमिकं तु प्रायो गाथाद्यसमानग्रन्थत्वात्
कालिकश्रुतमाचारादि। (ग) मलयगिरीया वृत्ति, प. २०३ ५. द्रष्टव्य, बृहत्कल्प भाष्य, १४३ की वृत्ति
६. (क) नंदी चूणि, पृ. ६२ : अभिधाणभिधेयबसतो गमा
भवंति, ते य अणंता इमेण विधिणा-सुतं मे आउसं तेणं भगवता, तं सुतं मे आउसं, तहि सुतं मे आ०, आ सुतं मे आ०, तं सुतं मया आ०, तदा सुतं मदा आ०, तहिं सुतं मया आ०, एवमादिगमेहि भण्णमाणं
अणंतगर्म। (ख) हारिभद्रीया वृत्ति, पृ. ७७ : अन्ये तु व्याचक्षते
अभिधानाऽभिधेयवशतो गमा इति, ते चानन्ताः, ते पुनरनेन विधिना अवसेयाः, तद्यथा-सुयं मे आउसं! तेणं भगवया, आउसंतेणं भगवया, सुयं मे आउसंपदा, सुयं मे आउसं तहि, सुयं मे आउसं, आउसं सुयं मे, आसुयं. मया, तं सुयं मया, आ तया सुयं मया, आ तहिं सुयं मया आ, एवमादिभिर्भण्यमानं
किलानन्तगममिति। (ग) मलयगिरीया वृत्ति, प. २१२
Jain Education Intemational
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org