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नंदी से होते हैं इसलिए क्षायोपशमि क हैं । केवलज्ञान ज्ञानावरण के सर्वथा क्षय से उत्पन्न होता है इसलिए वह क्षायिक है।
क्षायोपशमिक ज्ञान का विषय है मूर्त द्रव्य, पुद्गलद्रव्य । क्षायिक ज्ञान का विषय मूर्त और अमूर्त-दोनों द्रव्य हैं। धर्म, अधर्म, आकाश और जीव-ये अमूर्त द्रव्य हैं । क्षायोपशमिक ज्ञान के द्वारा इनका प्रत्यक्ष ज्ञान नहीं हो सकता। अमूर्त का ज्ञान परोक्षात्मक शास्त्र ज्ञान से होता है।'
____ दार्शनिक युग में केवलज्ञान की विषय वस्तु के आधार पर सर्वज्ञवाद की विशद चर्चा हुई है। पण्डित सुखलालजी ने उस चर्चा का समवतार इस प्रकार किया है--"न्याय वैशेषिक दर्शन जब सर्व विषयक साक्षात्कार का वर्णन करता है तब वह सर्व शब्द से अपनी परम्परा में प्रसिद्ध द्रव्य, गुण आदि सातों पदार्थों को संपूर्ण भाव से लेता है। सांख्य योग जब सर्व विषयक साक्षात्कार का चित्रण करता है तब वह अपनी परम्परा में प्रसिद्ध प्रकृति पुरुष आदि पच्चीस तत्वों के पूर्ण साक्षात्कार की बात कहता है । बौद्ध दर्शन पंच स्कन्धों को संपूर्ण भाब से लेता है । वेदांत दर्शन सर्व शब्द से अपनी परम्परा में पारमार्थिक रूप से प्रसिद्ध एकमात्र पूर्ण ब्रह्म को ही लेता है । जैन दर्शन भी सर्व शब्द से अपनी-अपनी परम्परा में प्रसिद्ध सपर्याय षड् द्रव्यों को पूर्ण रूपेण लेता है। इस तरह उपर्युक्त सभी दर्शन अपनी परम्परा के अनुसार माने जाने वाले सब पदार्थों को लेकर उनका पूर्ण साक्षात्कार मानते है और तदनुसारी लक्षण भी करते है।'
पण्डित सुखलालजी की सर्वज्ञता विषयक मीमांसा का स्पष्ट फलित है कि 'सर्व' पद के विषय में सब दार्शनिक एक मत नहीं हैं। इसका मूल हेतु आत्मा और ज्ञान के संबंध की अवधारणा है । जैन दर्शन के अनुसार ज्ञान आत्मा का स्वभाव है। वह एक है, अक्षर है, उसका नाम केवलज्ञान है।'
आचार्य कुन्दकुन्द ने केवल ज्ञान का लक्षण व्यवहार और निश्चय-दो दृष्टियों से किया है-व्यवहार नय से केवली भगवान् सबको जानते हैं और देखते हैं । निश्चय से केवलज्ञानी अपनी आत्मा को जानते हैं और देखते हैं।
जैन दर्शन के अनुसार ज्ञान स्व-पर प्रकाशी है। वह स्वप्रकाशी है इस आधार पर केवलज्ञानी निश्चय नय से आत्मा को जानता-देखता है, यह लक्षण संगत है। वह पर-प्रकाशी है, इस आधार पर वह सबको जानता-देखता है, यह लक्षण संगत है।
केवलज्ञान आत्मा का स्वभाव है। वह स्वभाव है इसलिए मुक्त अवस्था में भी विद्यमान रहता है । प्रत्यक्ष अथवा साक्षात्कारित्व उसका स्वाभाविक गुण है । ज्ञानावरण कर्म से आच्छन्न होने के कारण उसके मति, श्रुत आदि भेद बनते हैं। संग्रह दृष्टि से चार भेद किए गए हैं-मति, श्रुत, अवधि और मनःपर्यव । तारतम्य के आधार पर असंख्य भेद बन सकते हैं । ज्ञानावरण का सर्वविलय होने पर ज्ञान के तारतम्य जनित भेद समाप्त हो जाते हैं और केवलज्ञान प्रकट हो जाता है।
केवलज्ञान का अधिकारी सर्वज्ञ होता है । सर्वज्ञ और सर्वज्ञता न्याय प्रधान दर्शन युग का एक महत्त्वपूर्ण चर्चनीय विषय रहा है। जैन दर्शन को केवलज्ञान मान्य है इसलिए सर्वज्ञवाद उसका सहज स्वीकृत पक्ष है। आगम युग में उसके स्वरूप और कार्य का वर्णन मिलता है किंतु उसकी सिद्धि के लिए कोई प्रयत्न नहीं किया गया । दार्शनिक युग में मीमांसक, चार्वाक् आदि ने सर्वज्ञत्व को अस्वीकार किया तब जैन दार्शनिकों ने सर्वज्ञत्व की सिद्धि के लिए कुछ तर्क प्रस्तुत किए। ज्ञान का तारतम्य होता है, उसका अन्तिम बिन्दु तारतम्य रहित होता है । ज्ञान का तारतम्य सर्वज्ञता में परिनिष्ठित होता है। इस युक्ति का उपयोग मल्लवादी, हेमचन्द्र, उपाध्याय यशोविजय आदि सभी दार्शनिकों ने किया है। पण्डित सुखलालजी ने इस युक्ति का ऐतिहासिक विश्लेषण करते हुए लिखा है-'यहां ऐतिहासिक दृष्टि से यह प्रश्न है कि प्रस्तुत युक्ति का मूल कहां तक पाया जाता है और वह जैन परम्परा में कब से आई देखी जाती है। अभी तक के हमारे वाचन-चिंतन से हमें यही जान पड़ता है कि इस युक्ति का पुराणतम उल्लेख योगसूत्र के सिवाय अन्यत्र नहीं है । हम पातंजल योगसूत्र के प्रथम पाद में 'तत्र निरतिशयं सर्वज्ञबीजम्' (१.२५) ऐसा सूत्र पाते हैं,
१. द्रष्टव्य-भगवती, ८1१८५ २. दर्शन और चिंतन, पृ० ४२९,४३० ३. नवसुत्ताणि, नंदी, सू०७१
सव्वजीवाणं पि य णं - अक्खरस्स अणंतभागो निच्चग्याडिओ, जइ पुण सो वि आवरिज्जा, तेणं जीवो अजीवत्तं पाविज्जा।
सुठ्ठ वि मेहसमुदए होई पभा चंदसूराणं ।
४. नियमसार, गा० १२११११५४, पृ. १४६
जाणदि पस्सदि सव्वं, ववहारणयेण केवली भगवं । केवलणाणी जाणदि पस्सदि णियमेण अप्पाणं ॥ ५. (क) नयचक्र लिखित प्रति, पृ. १२३ (ख) प्रमाण मीमांसा, अध्ययन १, आह्निक १, सू. १८,
पृ.१५ (ग) ज्ञानबिन्दुप्रकरणम्, पृ. १९ ६. ज्ञानबिन्दुप्रकरणम्, परिचय, पृ. ४३,४४
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