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प्र० ३, सू० ५४, टि०७-१० ६. (गाथा ४)
इन्द्रियों के तीन वर्ग किए गए हैं१. स्पृष्ट विषय का ग्रहण करने वाली २. बद्धस्पृष्ट विषय का ग्रहण करने वाली ३. अस्पृष्ट विषय का ग्रहण करने वाली ।
स्पर्शन, रसन और घ्राण-ये तीन इन्द्रियां पटु, श्रोत्र पटुतर और चक्षुरिन्द्रिय पटुतम होती है। विषय ग्रहण की पटुता के आधार पर ये तीन वर्ग किए गए हैं । चक्षुरिन्द्रिय की पटुता अधिक है इसलिए वह अस्पृष्ट, अप्राप्त अथवा असंबद्ध विषय का ग्रहण कर लेती है। श्रोत्र इन्द्रिय पटुतर होती है इसलिए वह स्पृष्ट अथवा प्राप्त मात्र विषय को ग्रहण करती है। जैसे धूल शरीर को छूती है वैसे ही शब्द कान को छूता है और उसका बोध हो जाता है। जिनभद्रगणि ने स्पृष्ट मात्र के ग्रहण के तीन हेतु बतलाए हैं।' शब्द के परमाणु स्कन्ध सूक्ष्म, प्रचुर द्रव्य वाले तथा भावुक-उत्तरोत्तर शब्द के परमाणु स्कंधों को वासित करने वाले होते हैं। इसलिए उनका बोध स्पर्श मात्र से हो जाता है। स्पर्शन, रसन और घ्राण ये तीन इन्द्रियां स्पष्ट व बद्ध विषय का ग्रहण करती है. इसका हेतु यह है कि इनके विषयभूत परमाणु स्कन्ध अल्पद्रव्य वाले और अभावुक होते हैं। और ये तीनों इन्द्रियां श्रोत्रेन्द्रिय के समान पटु नहीं होतीं। इसलिए इनका विषय पहले स्पृष्ट होता है, स्पर्श के अनन्तर वह बद्ध होता है-आत्म-प्रदेशों के द्वारा गृहीत होता है।'
हरिभद्रसूरि ने बद्ध का तात्पर्य जल के उदाहरण द्वारा समझाया है जैसे पहले जल का शरीर से स्पर्श होता है फिर वह आत्मीकृत हो जाता है।
चक्षुरिन्द्रिय स्पृष्ट विषय का अवग्रहण नहीं करती। इसलिए वह अप्राप्यकारी है। स्पर्शनेन्द्रिय जैसे स्पृष्ट विषय को जानती है वैसे चक्षुरिन्द्रिय अंजन को नहीं जानती इसलिए वह मन की तरह अप्राप्यकारी है। उत्तरवर्ती दार्शनिक साहित्य में प्राप्यकारी व अप्राप्यकारी की चर्चा विस्तार से हैं।
बौद्ध न्याय में श्रोत्रेन्द्रिय को भी अप्राप्यकारी माना गया है। नैयायिक दर्शन में सभी इन्द्रियां प्राप्यकारी हैं। १०. (गाथा ५)
पूर्ववर्ती गाथा की व्याख्या में 'भावुक' शब्द का प्रयोग हुआ है। उसकी स्पष्टता प्रस्तुत गाथा में की गई है। वक्ता बोलता है उसकी भाषा के पुद्गल स्कन्ध छहों दिशाओं में विद्यमान आकाश प्रदेश की श्रेणियों से गुजरते हुए प्रथम समय में ही लोकान्त तक पहुंच जाते हैं। भाषा की समश्रेणी में स्थित श्रोता मिश्र शब्द को सुनता है। वक्ता द्वारा उच्छृष्ट भाषा वर्गणा के पुद्गलों के साथ दूसरे भाषा वर्गणा के पुद्गल स्कन्ध मिल जाते हैं इसलिए श्रोता मूल शब्द को नहीं सुनता, मिश्र शब्द सुनता है। विश्रेणी में स्थित श्रोता वक्ता द्वारा उच्छृष्ट भाषा के पुद्गल स्कन्धों द्वारा वासित अथवा प्रकंपित शब्दों को सुनता है। इसमें वक्ता द्वारा उच्छृष्ट मूल शब्द का मिश्रण नहीं रहता ।' इस प्रकार की गाथा धवला में भी उद्धृत है'
भासागदसमसेढि सई जदि सुणदि मिस्सयं सुणदि । उस्सेहि पुण सदं सुणेदि णियमा पराघादे ॥
१. विशेषावश्यक भाष्य, गा. ३३८ : बहु-सहुम-भावुगाई जं पडुयरं च सोत्तविण्णाणं । गंधाईदव्वाइं विवरीयाई जओ ताई ॥ २. हारिभद्रीया वृत्ति, पृ. ५७: तस्य सूक्ष्मत्वाद् भावुकत्वात् प्रचुरद्रव्याकुलत्वात् श्रोत्रेन्द्रियस्यान्येन्द्रियगणात् प्रायः पटुतरत्वात् । ३. हारिभद्रीया वृत्ति, पृ. ५७,५८ : 'बद्धस्पृष्टमिति' बद्धम्
आश्लिष्टं तोयवदात्मप्रदेशरात्मीकृतमित्यर्थः, "आलिङ्गितानन्तरमात्मप्रदेश रागहीतमित्यर्थः, गन्धादि स्तोकद्र व्यत्वादभावुकत्वाद् घ्राणादीनां चापटुत्वाद विनिश्चिनोति ।
४. तत्त्वार्थवातिक, भाग १, पृ. ६७ : अप्राप्यकारि चक्षुः स्पृष्टानवग्रहात् । यदि प्राप्यकारी स्यात् त्वगिन्द्रियवत् स्पृष्टमञ्जनं गृह्णीयात् । न च गृह्णाति । अतो मनोवद
प्राप्यकारीत्यवसेयम् । ५. अभिधम्मकोश, ११४३ ६. (क) हारिभद्रीया वृत्ति, पृ. ५८
(ख) मलयगिरीया वृत्ति, प. १८६ ___७. (क) षटखण्डागम, पुस्तक १३, पृ. २४४
(ख) द्रष्टव्य, विशेषावश्यक भाष्य, गा. ३५१
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