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प्र० ३, सू० ३६-५०, टि०५
१. व्यञ्जनावग्रह
२. सामान्य अर्थावग्रह
३. विशेष सामान्य अर्थावग्रह ।
इंद्रिय ज्ञान की उत्पत्ति की प्रक्रिया
अवग्रह आदि के एकार्थक पदों द्वारा इंद्रिय ज्ञान की उत्पत्ति की प्रक्रिया बतलाई गई है
१. अवग्रह-
१. अवग्रहण अवग्रह की पहली अवस्था है अवग्रहण । इस अवस्था में इंद्रिय और अर्थ का योग होने पर अर्थ का ज्ञान काल सापेक्ष होता है । एक साथ अर्थ का ग्रहण नहीं होता किंतु वह कालक्रम से होता है। इसे प्रतिबोधक दृष्टांत से समझाया गया है ।" अर्थ का ज्ञान असंख्य समय की कालावधि में होता है। प्रथम समय ( काल का अविभाज्य अंश) में प्रविष्ट अथवा सन्निकृष्ट पुद्गलों का ज्ञान नहीं होता ।
२. उपधारण प्रस्फुटित रूप बनता है।
३. श्रवण
होता है ।"
अवग्रह की दूसरी अवस्था है उपधारण । इस अवस्था में दूसरे समय से लेकर असंख्यात समय तक अर्थ का इस अवस्था को उपधारण पद से सूचित किया गया है।
अवग्रह की तीसरी अवस्था है श्रवण । इस अवस्था में एक समय की अवधि वाला सामान्य अर्थ का अवग्रहण
४. अवलम्बन - अवग्रह की चौथी अवस्था है अवलम्बन । इस अवस्था में विशेष सामान्य अर्थ का अवग्रह होता है ।"
५. मेधा -- अवग्रह की पांचवीं अवस्था है मेधा । इस अवस्था में उत्तरोत्तर धर्म की जिज्ञासा के काल में विशेष सामान्य अर्थ का अवग्रहण होता है ।"
चक्षु इंद्रिय का व्यञ्जनावग्रह नहीं होता । अतः अर्थावग्रह के श्रवण आदि तीन पद एकार्थक होते हैं । "
अवग्रहण आदि पांच पदों के भिन्न-भिन्न अर्थ बतलाए गए हैं, इस अवस्था में उन्हें एकार्थक कैसे कहा जा सकता है ? इस प्रश्न के समाधान में चूर्णिकार का वक्तव्य है कि सभी विकल्पों में अवग्रह के स्वरूप का ही निदर्शन है इसलिए इन्हें एकार्थक कहा गया है।"
२. ईहा
अवग्रह के अनन्तर ईहा का प्रारम्भ होता है ।
१. आभोग - ईहा की पहली अवस्था है आभोग। इस अवस्था में विशेष अर्थाभिमुखी आलोचन प्रारम्भ हो जाता है ।" २. मार्गणा - ईहा की दूसरी अवस्था है मार्गणा । इस अवस्था में विशेष अर्थ के अन्वय और व्यतिरेक धर्म का समालोचन
होता है।"
१. द्रष्टव्यनवसुत्ताणि, नंदी, सू. ५२
२. (क) नन्दी चूर्ण, पृ० ३५ जग्स पढमसमयपि पोग्गलाण गहणता ओगिण्हणता भण्णति ।
(ख) हारिभद्रीया वृत्ति, पृ० ५०
(ग) मलयगिरीया वृत्ति, पत्र १७५
२. (क), पृ० ३५
वितियादिसमाजा
वंजणोग्गहो ताव उपधारणता भण्णति ।
(ख) हारिनीयावृत्ति, पृ० ५०
(ग) मलयगिरीया वृत्ति प. १७५
४. (क) नन्दी चूणि, पृ० ३५ : एगसामइगसामण्णत्थावग्गह
काले सवणता भण्णति ।
(ख) हारिभद्रा वृत्ति, पृ० ५०
(ग) मलयविरीया वृत्ति प. १७५
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५. (क) नन्दी चूणि, पृ० ३५-३६ : विसेससामण्णत्थावग्गह
काले अवलंबणता भष्णति ।
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(ख) हारिभद्रया वृत्ति, पृ० ५० (ग) मलयगिरीया वृत्ति, प० १७५
६. (क) नन्दी चूर्ण, पृ० ३६ : उत्तरुत्तरविसेससामण्णत्थावगहेसु जाव मेरया धावइ ताव मेधा भण्णइ । (ख) हारिमडीयावृति ०५०
७. नन्दी चूर्ण, पृ० ३६ : जत्थ वंजणावग्गहो नत्थि तत्थ सवणादिया तिणि एगट्ठिता भवंति ।
८. वही, पृ० ३६ : णणु भिण्णत्थदंसणे एगट्टित त्ति विरुद्ध ? उच्यते, ण विरुद्ध, जतो सव्वविकप्पेसु उग्गहस्सेव सरूवं दंसिज्जदि ।
९. (क) दीपू, पृ० ३६ ओमानंतर सम्भूतविसेसन्याभिमुहमालोयणं आभोयणता भण्णति ।
(ख) हारिमडीयावृति, पृ० ५०
(ग) मलयगिरीया वृत्ति, प. १७०
१०. (क) नन्दी चूर्ण, पृ० ३६ : तस्सेव विसेसत्यस्स अण्णयवइरेगधम्मसमालोयणं मग्गणा भण्णति ।
(ख) हारिद्रयावृत्ति, ०५०-५१
(ग) मलयगिरीया वृत्ति, प. १७०
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