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नंदी
जब पुद्गल द्रव्य प्रमाणोपेत होकर अपने विषय के प्रतिबोध में समर्थ बन जाते हैं उस अवस्था का नाम है व्यञ्जन का पूर्ण
होना ।
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जब उन पुद्गलों से द्रव्येन्द्रिय परिपूर्ण हो जाता है यह व्यञ्जन के पूर्ण होने की दूसरी अवस्था है ।
जब पुद्गल द्रव्येन्द्रिय के अंगभूत बन जाते हैं और पुद्गल द्रव्येन्द्रिय से अनुसक्त हो जाते हैं तादात्म्य स्थापित कर लेते हैं । यह व्यञ्जन के पूर्ण होने की तीसरी अवस्था है। इस अवस्था में पुद्गल इन्द्रिय को पूर्ण कर देते हैं, इन्द्रिय अपने विषय के प्रतिबोध के लिए उन पुद्गलों को ग्रहण कर लेती है। इस प्रकार पुद्गल और इन्द्रिय दोनों के सामर्थ्य से विज्ञान उत्पन्न होता है ।
प्रतिबोध काल से पूर्व व्यञ्जनावग्रह होता है । प्रतिबोध के समय जब 'हूं' की ध्वनि करता है तब एक सामयिक अर्थावग्रह
होता है ।"
ज्ञान की प्रक्रिया व्यञ्जनावग्रह में प्रारम्भ हो जाती है। अर्थावग्रह व्यञ्जनाग्रह का अंतिम क्षण है । उसमें अर्थ बोध कुछ आगे बढ़ता है फिर भी बोध व्यक्त नहीं होता । सूत्रकार ने इसे शब्द के उदाहरण से समझाया है ।
'कोई अव्यक्त शब्द सुनता है' यह अर्थावग्रह है । 'अव्वत्तं सद्दं सुणेइ ।' अव्यक्त का अर्थ है -अनिर्देश्य, सामान्य, विकल्परहित । जिनभद्रगणि ने विकल्परहित का अर्थ स्वरूप, नाम आदि की कल्पना से रहित किया है।" मलधारी हेमचन्द्र ने इसका विस्तृत अर्थ किया है । अनिर्देश्य का अर्थ किया है --जाति, क्रिया, गुण, द्रव्य आदि से रहित । *
अर्थावग्रह में अव्यक्त शब्द का बोध होता है। इसका तात्पर्य है कि शब्द है ऐसा अवाय अथवा निर्णय नहीं होता । किन्तु कुछ है ऐसा बोध होता है। यदि 'शब्द है' ऐसा निर्णय हो जाए तो वह अर्थावग्रह नहीं, अवाय हो जाएगा।' अर्थावग्रह में ज्ञेय पर्याय का निर्णय नहीं होता । यह सूचित करने के लिए 'अव्यक्त' शब्द का प्रयोग किया गया है।
चूर्णिकार ने 'अव्यक्त शब्द' के विषय में मतान्तर का उल्लेख किया है । कुछ आचार्यों का अभिमत है अवग्रह में 'यह शंख या शृंग किसका शब्द है इसका बोध नहीं होता । चूर्णिकार ने इस अर्थ को भी अविरुद्ध माना है । यह अविरोध अपेक्षा भेद से समझा जा सकता है।" शब्द के प्रथम पर्याय का बोध होता है वहां अव्यक्त शब्द का अर्थाग्रह इस आकार में होगा कुछ है । शब्द के उत्तरवर्ती पर्याय के बोध में अव्यक्त शब्द का अर्थावग्रह इस आकार में होगा यह किसका शब्द है ।
सूत्रकार ने मन के अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा को स्वप्न के निदर्शन द्वारा स्पष्ट किया है। स्मृति मन की एक क्रिया
है । किसी व्यक्ति ने निद्रा के समय स्वप्न देखा । जागने के प्रथम समय में यह स्मृति होती है - मैंने स्वप्न देखा - यह अर्थावग्रह है । उसकी प्रथम अवस्था में व्यञ्जनावग्रह होता है। जागृत अवस्था में भी मानसिक व्यापार में व्यञ्जनावग्रह होता है। इसका हेतु यह है कि उपयोग का कालमान असंख्येय समय है और अर्थावग्रह का कालमान एक समय । इसलिए व्यञ्जनावग्रह होना चाहिए । यह चूर्णिकार का अभिमत है ।' हरिभद्रसूरि ने इसका खण्डन किया है। मूल आगम में भी व्यञ्जनावग्रह चार प्रकार का बताया गया १. नन्दी चूणि, पृ. ४० : 'हुं ति करेइ' त्ति वंजणे पूरिते तं अत्यं गेहइ त्ति वृत्तं भवति । एस एकसमयिओ अत्याहो। २. व्ही. पू. ४० तो अध्वत्तमणिद्देशं साम विरूपरहिये ति भण्णति ।
३. विशेषावश्यक भाष्य, गा. २५२
सामन्नमणिद्देसं सरूव-नामाइकप्पणारहियं । जइ एवं जं तेणं गहिए सद्दे त्ति तं किह ण ॥ ४. वही, गा. २५२ की वृत्ति : स्वरूप - नामादिकल्पनारहितम्, आदिशब्दाज्जाति- क्रिया-गुण द्रव्यपरिग्रहः । ५. नन्दी चूर्ण, पृ. ४०, ४१: जति वा "सद्दोग्य" मिति बुद्धी भवे तो अवातो चेव भवे, तच्च न कहं ?
उच्चते – जो जतो अत्थावग्गहसमयमेत्ते काले 'सद्द' इति विसेसणाणमत्व, अह तमिव समए सोऽयमिति बुद्धी तम्मिवि हवेज्ज तो फुडं अवाय एव भवेज्ज ।
६. (क) हारिभद्रया वृत्ति, पृ. ५४,५५
(ख) मलयगिरीया वृत्ति, प. १८०,१८१ (ग) ज्ञानबिन्दु प्रकरणम्, पृ. १०
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७. नन्दी चूर्ण, पृ. ४१: अण्णे पुण आयरिया एतं सुतं त्यागमति असुन्न' ति एस विसेसत्थावग्गहो, ' तेण सद्दे ति उग्गहिते' ति एतं सुत्तखंड सामन्यत्वायसगं करूं? उच्यते जतो भयति 'णो चेव णं जाणति के वि एस सद्दे' त्ति संख-संग-पालिकरलादिको त्ति, एसो वि अविरुद्धो सुत्तत्यो । ८. नन्दी चूर्ण, पृ. ४१,४२ : सुविणो मे दिट्ठोत्ति सुविण - दिट्ठ अव्वत्तं सुमरइ । तच्च प्रतिबोधप्रथमसमये सुविण - मिति संभरतो अत्थावग्गहो, तस्य प्रथमावस्थायां व्यञ्जनावग्रहः, परतो ईहादि । सेसं पूर्ववत् । जग्गतो अणदियत्थबाबारे व मगसो तेजही उपयोग असंखेज्जसमयत्तणयो, उवयोगद्धाए य प्रतिसमयमणोदव्वग्गहणतो, मणोदव्वाणं च वंजणववदेसतो समए य असंखेज्जतिमे मनसो निमार्थग्रहणं भवेत् ।
९. हारिमडीयावृति १.५५ अन्ये तु मनोज्या पूर्व व्यञ्जनावग्रहं मनोद्रव्यव्यञ्जनग्रहणलक्षणं व्याचक्षते तत् पुनरयुक्तम्, अनार्षत्वात् व्यञ्जनावग्रहस्य श्रोत्रादिभेदेन चतु।
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