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नंदी
किसी अध्ययन, श्रवण, प्रश्न आदि के बिना सम्मुखीन अर्थ को जान लेता है। जटिल से जटिल प्रश्न का भी उत्तर दे देता हैं। यह औत्पत्तिकी बुद्धि का स्वरूप है।
धवला में उद्धृत गाथा के अनुसार विनय से अधीत श्रुतज्ञान प्रमाद से विस्मृत हो जाता है वह परभव में उपस्थित होकर औत्पत्तिकी बुद्धि का रूप ले लेता है।'
आचार्य वीरसेन ने प्रज्ञाश्रवण की व्याख्या के प्रसंग में प्रज्ञा के औत्पत्तिकी आदि चार प्रकार बतलाए हैं ।
पूर्वजन्म में अधीत चौदह पूर्वो की विस्मृति और उसका उत्तरवर्ती मनुष्य जन्म में प्रकटीकरण--इस विषय का उल्लेख श्वेताम्बर साहित्य में उपलब्ध नहीं है।
____ अकलंक के अनुसार श्रुतज्ञानावरण और वीर्यान्तराय का उत्कृष्ट क्षयोपशम होने पर प्रज्ञाश्रवण ऋद्धि उपलब्ध होती है। इस ऋद्धि से सम्पन्न प्रज्ञाश्रवण चतुर्दशपूर्वी को भी समाधान दे सकता है।' २. वनयिको बुद्धि
ज्ञान और ज्ञानी के प्रति जो प्रकृष्ट विनय होता है उससे उत्पन्न बुद्धि वैनयिकी बुद्धि है।
षट्खण्डागम के अनुसार विनयपूर्वक द्वादशाङ्गी को पढते समय जो बुद्धि उत्पन्न होती है वह वैनयिकी बुद्धि है। वैकल्पिक रूप से परोपदेश से उत्पन्न बुद्धि को भी वैनयिकी बुद्धि कहा गया है।' ३. कर्मजा बुद्धि
किसी एक कार्य में मन का अभिनिवेश हो जाता है । उस अभिनिवेश के कारण कार्य की सफलता हो जाती है। यह कार्य में गहरी एकग्रता और अभ्यास से उत्पन्न होती है। षट्खण्डागम के अनुसार गुरु के उपदेश से निरपेक्ष तपश्चरण के बल से उत्पन्न बुद्धि कर्मजा बुद्धि है। अथवा इसका वैकल्पिक अर्थ भी किया गया है-यह बुद्धि औषध सेवन से भी उत्पन्न होती है। ४. पारिणामिकी बुद्धि---
अवस्था के परिपाक से होनेवाली बुद्धि पारिणामिकी है। षट्खण्डागम के अनुसार अपनी-अपनी जाति विशेष से उत्पन्न बुद्धि पारिणामिकी बुद्धि है।'
वीरसेन ने प्रज्ञा और ज्ञान का भेद बतलाया है। उनके अनुसार गुरु के उपदेश से निरपेक्ष ज्ञान के हेतुभूत जीव की शक्ति का नाम प्रज्ञा है। ज्ञान उसका कार्य है। इस भेद के आधार पर विचार करने से हरिभद्र और वीरसेन दोनों के कुछ वाक्य विमर्शनीय बन जाते हैं।
वैनयिकी की व्याख्या के प्रसंग में एक प्रश्न उपस्थित हुआ है कि वैनयिकी बुद्धि वाला त्रिवर्ग के सूत्र और अर्थ का सार ग्रहण करता है। इससे अश्रतनिश्रितत्व का विरोध है । इस प्रश्न के उत्तर में हरिभद्रसरि ने लिखा है...अश्रतनिश्रितत्व प्रायिक है, स्वल्पश्रुत का निश्रित होने में कोई दोष नहीं है। वैनयिकी की व्याख्या में वीरसेन ने भी परोपदेश का उल्लेख किया है। षट्खण्डागम में अश्रुतनिश्रित का उल्लेख नहीं है इसलिए वैनयिकी के प्रसंग में परोपदेश का उपदेश हो सकता है । परन्तु नंदी सूत्र में बुद्धि चतुष्टय अश्रुतनिश्रित के अन्तर्गत है इसलिए हरिभद्र का उल्लेख विमर्शनीय है।
१. षट्खण्डागम, पुस्तक ९, पृ. ८२ : तत्थ जम्मंतरे चउन्विहणिम्मलमदिबलेण विणएणावहारिददुवालसंगस्स देवे. सुप्पज्जिय मणुस्सेसु अविणट्ठसंस्कारेणुप्पण्णस्स एत्थ भवम्मि पढण-सुणण-पुच्छणवावारविरहियस्स पण्णा अउप्पत्तिया
णाम । २. वही, पृ. ८२: विणएण सुदमधीदं किह वि पमादेण होदि विस्सरिदं ।
तमुवट्ठादि परभवे केवलणाणं च आहवदि । ३. तत्त्वार्थवार्तिक, पृ. २०२: प्रकृष्टश्रुतावरणवीर्यान्तराय
क्षयोपशमाविर्भूताऽसाधारणप्रज्ञाशक्तिलाभान्निःसंशयनिरूपणं प्रज्ञाश्रवणत्वम् । ४. षट्खण्डागम, पुस्तक ९, पृ. ८२ : विणएण दुवालसंगाई
पढंतस्सुप्पण्णा वेणइया णाम, परोवदेसेण जादपण्णा वा।
५. वही, पृ.८२ : तवच्छरणबलेण गुरूवदेसणिरवेक्खेणुप्पण्णा
कम्मजा णाम, ओसहबलेणुप्पण्णपण्णा वा। ६. षट्खण्डागम, पुस्तक ९, पृ. ८४ : सगसगजादिविसेसेण
समुप्पण्णपण्णा पारिणामिया नाम । ७. वही, पृ.८४ : णाणहे दुजीवसत्ती गुरूवएसणिरवेक्खा पण्णा
णाम, तक्कारियं णाणं। ८. हारिभद्रीया वृत्ति, पृ. ४८ : त्रिवर्गः-त्रैलोक्यम् । आहत्रिवर्गसूत्रार्थगृहीतसारत्वे सति अश्रुतनिश्रितत्वं विरुध्यते ? इति, न हि श्रुताभ्यासमन्तरेण त्रिवर्गसूत्रार्थगृहीतसारत्वं सम्भवति, अत्रोच्यते-इह प्रायोवृत्तिमङ्गीकृत्याश्रुतनिधितत्वमुक्तम्, अतः स्वल्पश्रुतनिधितभावेऽपि न कश्चिद् दोष इति ।
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