________________
प्र० ३, सू० ३७,३८, टि०३,४
आभिनिबोधिकज्ञान है।
वस्तु का निर्विकल्प बोध अथवा दर्शन इन्द्रियजन्य होता है । वह सविकल्प या साकार परोपदेश से बनता है। एक शिशु आंख से पुस्तक को देखता है। उसके रंग और आकार को जान लेता है इसके अतिरिक्त उस पुस्तक के बारे में अन्य कुछ भी नहीं जानता। माता-पिता अथवा शिक्षक से उसके विषय में जानकारी मिलती है । वह मानस ज्ञान है। इस प्रक्रिया के आधार पर श्रुत को मतिपूर्वक कहा गया है । इन्द्रियजन्य बोध--यह इस रंग, रूप और आकार वाली कोई वस्तु है इतना ज्ञान मतिज्ञान है । इसके पश्चात् परोपदेश से होने वाला श्रुतज्ञान है।
श्रुतज्ञान से जिस वासना या संस्कार का निर्माण हुआ है वह भविष्य के ज्ञान का स्थायी आधार बनता है । भविष्य में वह उस पुस्तक को समग्रता से जान लेता है । उस समय किसी के उपदेश की अपेक्षा नहीं होती। इस प्रक्रिया के दो अंग हैं--
वह पुस्तक को देखकर समग्रता से जान लेता है यह मतिज्ञान है। उसकी मति पहले श्रुत से परिकमित अथवा संस्कारित है इसलिए यह विशुद्ध मतिज्ञान नहीं है ।
इन दोनों अंगों की संयोजना से एक तीसरे तत्त्व का निर्माण हुआ है वह है श्रुतनिश्रित मतिज्ञान अथवा श्रुतनिश्रित आभिनिबोधिकज्ञान ।
आभिनिबोधिक ज्ञान और श्रुतज्ञान दोनों अन्योन्यानुगत हैं और दोनों भिन्न भी हैं । भेद के हेतुओं का उल्लेख पहले किया जा चुका है । प्रस्तुत सुत्र उन दोनों के अभेद का निदर्शन है। यदि आभिनिबोधिकज्ञान के अवग्रह आदि अट्ठाईस प्रकारों का निर्देश करते हैं तो उनसे आभिनिबोधिक ज्ञान की स्वतंत्रता प्रमाणित नहीं होती। औत्पत्तिकी आदि बुद्धि चतुष्टय को श्रुतज्ञान नहीं माना जा सकता । इस स्थिति में मतिज्ञान की स्वतंत्रता सिद्ध होती है। किंतु उक्त अट्ठाईस भेदों से मति और श्रुत को विभक्त नहीं किया जा सकता और स्वतंत्र रूप से उन्हें न मतिज्ञान कहा जा सकता और न श्रुतज्ञान ही कहा जा सकता है। इस समस्या को सुलझाने के लिए आभिनिबोधिक के दो भेद किए गए---१. श्रुतनिश्रित २. अश्रुतनिश्रित ।
श्रुतनिश्रित आभिनिबोधिक ज्ञान उभयात्मक है। इन्द्रियजन्य होने के कारण वह आभिनिबोधिक है तथा श्रुतपरिकमित अथवा संस्कारित होने के कारण वह श्रुतज्ञान है। इस प्रक्रिया में न केवल आभिनिबोधिक है और न केवल श्रुतज्ञान । इसलिए सूत्रकार ने इसका नाम श्रुतनिश्रित आभिनिबोधिकज्ञान रखा है।
आभिनिबोधिकज्ञान के ये दो भेद नंदी से पूर्व किसी आगम में उपलब्ध नहीं हैं । स्थानाङ्ग में ये भेद मिलते हैं किन्तु यह संकलन सूत्र है । इसलिए उसे प्रमाण रूप में उद्धृत नहीं किया जा सकता । तत्त्वार्थसूत्र तथा दिगम्बर साहित्य में भी इन भेदों का उल्लेख नहीं है । पं. सुखलालजी ने भी इसकी ऐतिहासिक दृष्टि से विस्तृत चर्चा की है । द्रष्टव्य-ज्ञानबिन्दुप्रकरणम्, परिचय पृ. २४,२५ ।
सूत्र ३८
४. (सूत्र ३८)
प्रस्तुत सूत्र में चार बुद्धियों का वर्णन किया गया है। १. औत्पत्तिको बुद्धि--
औत्पत्तिकी बुद्धि इन्द्रियातीत और शब्दातीत चेतना का विकास है। इसलिए इसकी उत्पत्ति में किसी इन्द्रिय अथवा शब्द का योग नहीं होता । इस अर्थ की अभिव्यक्ति अदृष्ट, अश्रुत और अवेदित शब्द से हो रही है। जो स्वयं अदृष्ट है, दूसरे से अश्रुत है जिसके बारे में कभी चितन नहीं किया। उस अर्थ का तत्काल यथार्थ रूप में ग्रहण करने की क्षमता होती है उस बुद्धि का नाम है औत्पत्तिकी । इससे होने वाला वोध अव्याहत फल वाला होता है---लौकिक और लोकात्तर प्रयोजन से बाधित नहीं है।'
दिगम्बर साहित्य में इसकी व्याख्या का भिन्न प्रकार मिलता है । किसी पुरुष ने मुनि जीवन में बारह अंगों का अवधारण किया, मृत्यु के उपरान्त वह देव बना फिर मनुष्य जन्म में उत्पन्न हुआ। उसमें पूर्व अधीत ज्ञान के संस्कार विद्यमान हैं इसलिए वह
१. मलयगिरीया वृत्ति, प. १४४ : सर्वथा शास्त्रसंस्पर्शरहितस्य तथाविधक्षयोपशमभावत एवमेव यथावस्थितवस्तुसंस्पशि मतिज्ञानमुपजायते तत् अश्रुतनिश्रितमोत्पत्तिक्यादि ।
२. (क) हारिभद्रीया वृत्ति, पृ. ४८ (ख) आवश्यकनियुक्ति, गा. ८३९
Jain Education Intemational
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org