________________
प्र० ३, सू० ३४-३६, टि० १-२
भेद का दूसरा हेतु पौर्वापर्य है, कार्यकारण भाव है। मति कारण है इसलिए मति के बिना श्रुतज्ञान नहीं होता। श्रुत मतिपूर्वक होता है किन्तु मति श्रुतपूर्वक नहीं होती।' जिनभद्रगणि ने मति और श्रुत के भेदसूचक अन्य पांच हेतुओं का निर्देश किया है। मतिज्ञान
श्रुतज्ञान १. मतिज्ञान के अवग्रह आदि अट्ठाईस भेद हैं ।
१. श्रुतज्ञान के चौदह भेद हैं । २. मतिज्ञान पञ्चेन्द्रिय विषयक है।
२. श्रुतज्ञान श्रोत्रेन्द्रिय विषयक है। ३. मतिज्ञान वल्क (छाल) के समान है।
३. श्रृतज्ञान डोरी के समान है। ४. मतिज्ञान अनक्षर है।
४. श्रुतज्ञान अक्षरात्मक है । ५. मतिज्ञान मूक है।
५. श्रुतज्ञान प्रतिपादनक्षम है। जिनभद्रगणि ने वल्क और शुम्ब, अनक्षर और अक्षर तथा मूक और प्रतिपादनक्षम इन तीन भेदपरक हेतुओं की समीक्षा की है । वल्क और शुम्ब की समीक्षा का सारांश यह है-मतिज्ञान और द्रव्यश्रुत के लिए यह दृष्टान्त घटित नहीं होता। मतिज्ञान और भावश्रुत के लिए यह दृष्टान्त घटित हो सकता है।'
अनक्षर और अक्षर की समीक्षा का सारांश इस प्रकार है-पुस्तक में लिखित अकारादि वर्ण तथा ताल्वादि करणजन्य शब्द की संज्ञा व्यञ्जनाक्षर है । अंतर में स्फुरित होने वाला अकारादि वर्ण का ज्ञान भावाक्षर है। मतिज्ञान व्यञ्जनाक्षर की अपेक्षा अनक्षर है। भावाक्षर की अपेक्षा वह साक्षर है। श्रुतज्ञान व्यञ्जनाक्षर और भावाक्षर दोनों की अपेक्षा साक्षर है।'
मुक और प्रतिपादनक्षम की समीक्षा का सारांश इस प्रकार है-श्रुतज्ञान द्रव्यश्रुत के कारण परप्रत्यायन में सक्षम है। मतिज्ञान के लिए द्रव्य मति का कोई विकल्प नहीं है। इस प्रकार दोनों भिन्न हो जाते हैं।"
चणि कार ने विशेषावश्यक भाष्यगत अन्य मतों का उल्लेख किया है।'
तत्त्वार्थभाष्य में मति और श्रुत का भेद विषयग्रहण की कालिक क्षमता के आधार पर किया गया है । मतिज्ञान का विषय ग्रहण का काल वर्तमान है । श्रुतज्ञान त्रैकालिक है।"
ऐतिहासिक दृष्टि से विचार करने पर प्रतीत होता है कि तत्त्वार्थभाष्य में मति और श्रुत के भेद की चर्चा संक्षेप में की गई है। सिद्धसेन ने मति और श्रुत के एकत्व का प्रतिपादन कर एक नई परम्परा का सूत्रपात किया है। नंदी में वह परम्परा मान्य नहीं है । इसलिए जिनभद्रगणि ने मति और श्रुत के भेदक हेतुओं की विस्तार से प्रस्थापना की है। वह सिद्धान्तवाद की परंपरा ही उत्तरकाल में अनुस्यूत हुई है।
२. (सूत्र ३६)
सामान्यतः मति का कोई विभाग नहीं होता । स्वामी की चिन्ता के समय उसके दो विभाग बनते हैं। श्रुत के लिए भी यही नियम है। सम्यग्दृष्टि की मति मतिज्ञान है और मिथ्यादृष्टि की मति मतिअज्ञान है। सम्यग्दृष्टि का श्रुत श्रुतज्ञान है और मिथ्यादृष्टि का श्रुत श्रुतअज्ञान है।
इस प्रतिपादन की समीक्षा में तीन प्रश्न उपस्थित होते हैं
१. नन्दी चूणि, पृ. ३१ : मतीए सुतं पाविज्जति, ण मति
मंतरेण प्रापयितुं शक्यते । २. विशेषावश्यक भाष्य, गा. ९७:
लक्खणभेआ हेऊ फलभावओ भेयइंदियविभागा।
वागक्खर-मूए-यर भेयाभेओ मइ-सुयाणं ॥ ३. वही, गा. १५४ से १६१ ४. वही, गा. १६२ से १७० ५. वही, गा. १७१ से १७४ ६. नन्दी चूणि, पृ. ३२
७. तत्त्वार्थाधिगमसूत्रम्, पृ. ९१ : उत्पन्नाविनष्टार्थग्राहक साम्प्रतकालविषयं मतिज्ञानम्, श्रुतज्ञानं तु त्रिकालविषयम्,
उत्पन्नविनष्टानुत्पन्नार्थग्राहकमिति ॥ ८. निश्चयद्वात्रिंशिकाः, कारिका १९ : यातिप्रसङ्गाभ्यां
न मत्यभ्यधिकं श्रुतम् । ९. नन्दी चूणि, पृ. ३२ : पर आह-तुल्लखपोवसमत्तणतो घडाइवत्थूण य सम्मपरिच्छेदत्तणतो सद्दादिविसयाण य समुबलंभातो कहं मिच्छद्दिट्ठिस्स मति-सुता अण्णाणं ति भणिता?
Jain Education Intemational
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org