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प्र० २, सू०१०-१८, टि०८-१०
६. (सूत्र १७)
सांकल से बंधा हुआ स्थित दीप अपने परिपार्श्व में प्रकाश करता है, अन्य क्षेत्र में उसका प्रकाश नहीं होता। वैसे ही अनानुगामिक अवधिज्ञान क्षेत्र प्रतिबद्ध होता है । वह जिस क्षेत्र में उत्पन्न होता है उसी में कार्यकारी होता है। उत्पत्ति क्षेत्र से भिन्न क्षेत्र में वह कार्यकारी नहीं रहता। चूणिकार ने बतलाया है कि अनानुगामिक अवधिज्ञान की उत्पत्ति क्षेत्र सापेक्ष क्षयोपशम से होती है।'
तत्त्वार्थभाष्य में उमास्वाति ने प्रश्नादेशिक पुरुष के उदाहरण द्वारा स्पष्ट किया है। जैसे नैमित्तिक अथवा प्रश्नादेशिक पुरुष अपने नियत स्थान में प्रश्न का सम्यक् उत्तर दे सकता है वैसे ही क्षेत्र प्रतिबद्ध अवधिज्ञान अपने क्षेत्र में ही साक्षात् जान सकता है । अकलंक ने इसी का अनुसरण किया है।'
षट्खण्डागम में अनानुगामिक अवधिज्ञान के तीन भेद बतलाए गए हैं१. क्षेत्र अननुगामी-जो क्षेत्रान्तर में नहीं जाता, भवान्तर में ही जाता है। २. भव अननुगामी-जो भवान्तर में नहीं जाता, क्षेत्रान्तर में ही जाता है। ३. क्षेत्रभव अननुगामी-जो क्षेत्रान्तर और भवान्तर दोनों में ही नहीं जाता, उसी क्षेत्र और उसी भव से प्रतिबद्ध होता
शब्द विमर्श
परिपेरंत-चारों ओर ज्योतिःस्थान के पास । परिघोलेमाण-बार-बार ज्योतिःस्थान के आस-पास घूमता हुआ। संबद्ध-अपने उत्पत्ति क्षेत्र से लेकर अन्तराल किए बिना पूर्ण संबद्ध क्षेत्र को जाननेवाला। असंबद्ध-अपने उत्पत्ति क्षेत्र को तथा अन्तराल सहित विभिन्न क्षेत्रों को जाननेवाला।
सूत्र १८ १०. (सूत्र १८)
वर्धमान अवधिज्ञान के दो हेतु बतलाए गए हैं१. प्रशस्त अध्यवसाय में प्रवर्तन २. चारित्र की विशुद्धि ।
धवला के अनुसार वर्धमान अवधिज्ञान बढ़ता हुआ केवलज्ञान की उत्पत्ति के पूर्व क्षण तक चला जाता है। इसका देशावधि, परमावधि और सर्वावधि इन तीनों में अन्तर्भाव किया गया है।'
१. नन्दी चूणि, पृ. १७ : संकलापडिबद्धट्टितप्पदीवो व्व, तस्स
य खेतावेक्खखयोवसमलाभत्तणतो अणाणुगामित्तं । २. तत्त्वार्थाधिगमसूत्रम्, १२३ का भाष्य : तत्रानानुगामिक
क्षेत्र स्थितस्योत्पन्नं ततः प्रच्युतस्य प्रतिपतति, प्रश्नादेशपुरुषज्ञानवत् । ३. तत्त्वार्थवार्तिक, ११२२१४ ४. षट्खण्डागम, पुस्तक १३, पृ. १९४ : जं तमणणुगामी णाम ओहिणाणं तं तिविहं खेत्ताणणुगामी भवाणणुगामी खेत्त-भवाणणुगामी चेदि । खेत्तंतरं ण गच्छदि, भवंतरं चेव गच्छदि खेत्ताणणुगामि त्ति भण्णदि । जं भवंतरं ण गच्छदि, खेत्तरं चैव गच्छदि दं भवाणणुगामी णाम। जं खेत्तरभवांतराणि ण गच्छदि एक्कम्हि चेव खेत्ते भवे च पडिबद्धं तं खेत्त-भवाणणुगामि त्ति भण्णदि ।
५. मलयगिरीया वृत्ति, प.८९ : यत्रव क्षेत्र व्यवस्थितस्य सतः समुत्पद्यते तत्रैव व्यवस्थितः सन् सङ्खच यानि असङ्ख्येयानि वा योजनानि स्वावगाढक्षेत्रेण सह सम्बद्धानि असम्बद्धानि वा, अवधिहि कोऽपि जायमानः स्वावगाढदेशादारभ्य निरन्तरं प्रकाशयति कोऽपि पुनरपान्तरालेऽन्तरं कृत्वा परतः
प्रकाशयति तत उच्यते-सम्बद्धान्यसम्बद्धानि वेति । ६. षट्खण्डागम, पुस्तक १३, पृ. २९३,२९४ : जमोहिणाण
मुप्पणं संतं सुक्कपक्खचंदमंडलं व समयं पडि अवट्ठाणेण विणा वढमाणं गच्छदि जाव अप्पणो उक्कस्सं पाविदूण उवरिमसमए केवलणाणे समुप्पण्णे विणलृ ति तं बड्ढमाणं णाम । एवं देसोहिपरमोहिसव्वोहीणमंतो णिवददि, तिण्णि वि पाणाणि अवगाहिय अवट्टिदत्तादो।
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