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नंदी तत्त्वार्थसूत्रीय व्याख्याओं में पहला पक्ष वणित है; जबकि विशेषावश्यक भाष्य में दूसरे पक्ष का समर्थन किया गया है। परंतु योगभाष्य तथा मज्झिमनिकाय में जो परचित्त ज्ञान का वर्णन है उसमें केवल दूसरा ही पक्ष है जिसका समर्थन जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण ने किया है । योगभाष्यकार तथा मज्मिनिकायकार स्पष्ट शब्दों में यही कहते हैं कि ऐसे प्रत्यक्ष के द्वारा दूसरों के चित्त का ही साक्षात्कार होता है, चित्त के आलम्बन का नहीं । योगभाष्य में तो चित्त के आलम्बन का ग्रहण हो न सकने के पक्ष में दलीलें भी दी गई हैं ।"
परचित्त का साक्षात्कार करनेवाला ज्ञान मनःपर्यवज्ञान है । यह व्याख्या स्पष्ट नहीं है । ज्ञानात्मक चित्त को जानने की क्षमता मन:पर्यवज्ञान में नहीं है। ज्ञानात्मक चित्त अमूर्त है जबकि मनःपर्यवज्ञान मूर्त वस्तु को ही जान सकता है। इस विषय में सभी जैन दार्शनिक एकमत हैं । मनःपर्यवज्ञान का विषय है मनोद्रव्ध, मनोवर्गणा के पुद्गल स्कन्ध । ये पौद्गलिक मन का निर्माण करते हैं । मनःपर्यवज्ञानी उन पुद्गल स्कन्धों का साक्षात्कार करता है। मन के द्वारा चिन्त्यमान वस्तु मनःपर्यवज्ञान का विषय नहीं है। चिन्त्यमान वस्तुओं को मन के पौद्गलिक स्कन्धों के आधार पर अनुमान से जाना जाता है । मनःपर्यवज्ञान के द्वारा चिन्त्यमान वस्तु का साक्षात्कार नहीं किया जा सकता।'
मणपज्जवनाणं पुण, जणमणपरिचितियत्थपागडणं ।
माणुसखेत्तनिबद्धं, गुणपच्चइयं चरित्तवओ ॥१॥ इस गाथा के आधार पर मनःपर्यवज्ञान का विषय चिन्त्यमान वस्तु बतलाया गया है । चूर्णिकार ने इस गाथा की व्याख्या में लिखा है कि मनःपर्यवज्ञान अनन्तप्रदेशी मन के स्कन्धों तथा तद्गत वर्ण आदि भावों को प्रत्यक्ष जानता है। चिन्त्यमान विषय वस्तु को साक्षात् नहीं जानता क्योंकि चिन्तन का विषय मूर्त और अमूर्त दोनों प्रकार के पदार्थ हो सकते हैं । छद्मस्थ मनुष्य अमूर्त का साक्षात्कार नहीं कर सकता इसलिए मनःपर्यवज्ञानी चिन्त्यमान वस्तु को अनुमान से जानता है। इसीलिए मन:पर्यवज्ञान की पश्यत्ता (पण्णवणा ३०१२) का निर्देश भी दिया गया है।
सिद्धसेनगणी ने चिन्त्यमान विषयवस्तु को और अधिक स्पष्ट किया है। उनका अभिमत है कि मनःपर्यवज्ञान से चिन्त्यमान अमूर्त वस्तु ही नहीं, स्तम्भ, कुम्भ आदि मूर्त वस्तु भी नहीं जानी जाती। उन्हें अनुमान से ही जाना जा सकता है।'
मनःपर्यवज्ञान से मन के पर्यायों अथवा मनोगत भावों का साक्षात्कार किया जाता है । वे पर्याय अथवा भाव चिन्त्यमान विषयवस्तु के आधार पर बनते हैं। मनःपर्यवज्ञान का मुख्य कार्य विषयवस्तु या अर्थ के निमित्त से होनेवाले मन के पर्यायों का साक्षात्कार करना है । अर्थ को जानना उसका गौण कार्य है। और वह अनुमान के सहयोग से होता है।
सिद्धसेनगणी ने मनःपर्याय का अर्थ भावमन (ज्ञानात्मक पर्याय) किया है । तात्पर्य की दृष्टि से कोई अन्तर नहीं है। चिन्तन करना द्रव्य मन का कार्य नहीं है। चिन्तन के क्षण में मनोवर्गणा के पुद्गल स्कंधों की आकृतियां अथवा पर्याय बनते हैं वे सब पौद्गलिक होते हैं। भाव मन ज्ञान है ज्ञान अमूर्त है। अकेवली (छद्मस्थ मनुष्य) अमूर्त को जान नहीं सकता । वह चिन्तन के क्षण में पौद्गलिक स्कन्ध की विभिन्न आकृतियों का साक्षात्कार करता है। इसलिए मन के पर्यायों को जानने का अर्थ भाव मन को जानना नहीं होता किन्तु भाव मन के कार्य में निमित्त बनने वाले मनोवर्गणा के पुद्गल स्कन्धों के पर्यायों को जानना होता है।
१.विशेषावश्यक भाष्य, गा.८१३: मुणइ मणोदन्वाइं नरलोए सो मणिज्जमाणाई। काले भूय-भविस्से पलियाऽसंखिज्जभागम्मि । २. वही, गा.८१४: दश्वमणोपज्जाए जाणइ पासइ य तग्गएणते । तेणावभासिए उण जाणइ बज्झेऽणुमाणेणं ॥ ३. तत्वार्थ भाष्यानुसारिणी, पृ. १०१: येन ज्ञानेन मन:पर्याप्तिभाजां प्राणिनां-पञ्चेन्द्रियाणां मनुष्यलोकवर्तिनां मनसःपर्यायानालम्बते-जानाति मुख्यतः, ये तु चिन्त्यमानाः स्तम्भ-कुम्भादयस्ताननुमानेनावगच्छन्ति । कथम् ? उच्यतेअस्यैतानि मनोद्रव्याण्यनेनाकारेण परिणतानि लक्ष्यन्ते अतः स्तम्भादिश्चिन्तितः, तस्य परिणामस्य स्तम्भाद्यविनाभावात्, न पुनः साक्षाद् बहिव्याणि जानीते।
४. हारिभद्रीया वृत्ति, पृ. १९ : अथवा मनसः पर्याया मन:पर्यायाः, धर्मा बाह्यवस्त्वालोचनादिप्रकारा इत्यनर्थान्तरम् तेषु ज्ञानं मनःपर्यायज्ञानम्, तेषां वा सम्बन्धि ज्ञानं मन:पर्यायज्ञानम् । ५. तत्त्वार्थ भाष्यानुसारिणी, पृ. ७० : मनो द्विविधं-द्रव्यमनो भावमनश्च, तत्र द्रव्यमनो मनोवर्गणा, भावमनस्तु ता एव वर्गणा जीवेन गृहीताः सत्यो मन्यमानाश्चिन्त्यमाना भावमनोऽभिधीयते । तत्रेह भावमनः परिगृह्यते, तस्य भावमनसः पर्यायास्ते चैवंविधाः-यदा कश्चिदेवं चिन्तयेत् किस्वभाव आत्मा? ज्ञानस्वभावोऽमूर्तः कर्ता सुखादीनामनुभविता इत्यादयो ज्ञेयविषयाध्यवसायाः परगतास्तेषु यज्ज्ञानं तेषां वा यज्ज्ञानं तन्मनःपर्यायज्ञानम् ।
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