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प्र० २, सू० २३, टि० २०
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मनःपर्यवज्ञानी मन का साक्षात्कार करता है । यह व्याख्या का एक पक्ष है। इसे सर्वांगीण नहीं माना जा सकता। वास्तव में वह मन के पर्यायों का साक्षात्कार करता है। इसीलिए मनःपर्यवज्ञान के द्वारा पल्योपम के असंख्येय भाग अतीत और अनागत काल को जाना जा सकता है, देखा जा सकता है।
प्रस्तुत सूत्र में मनःपर्यवज्ञान के स्वामी का प्रतिपादन किया गया है । भगवती में उल्लेख है कि मनःपर्यवज्ञान आहारक अवस्था में होता है । अनाहारक अवस्था में उसका वर्जन किया गया है। प्रस्तुत आगम में मनःपर्यवज्ञानी के लिए नव अर्हताएं निर्धारित हैं
१. ऋद्धि प्राप्त २. अप्रमत्त संयत ३. संयत ४. सम्यग्दृष्टि ५. पर्याप्तक ६. संख्येयवर्षायुष्क ७. कर्मभूमिज ८. गर्भावक्रांतिक मनुष्य ९. मनुष्य, देखें यंत्रअस्वामी
स्वामी अमनुष्य
मनुष्य संमूच्छिम मनुष्य
गर्भावक्रान्तिक मनुष्य अकर्मभूमिज और अंतर्दीपक मनुष्य
कर्मभूमिज मनुष्य असंख्येयवर्षायुष्क मनुष्य
संख्येयवर्षायुष्क मनुष्य अपर्याप्तक मनुष्य
पर्याप्तक मनुष्य मिथ्यादृष्टि और सम्यमिथ्यादृष्टि
सम्यग्दृष्टि मनुष्य असंयत और संयतासंयत
संयत प्रमत्त
अप्रमत्त अनृद्धिप्राप्त
ऋद्धिप्राप्त
शब्द विमर्श
सम्मुच्छिममणुस्स---मनुष्य के वमन, पित्त आदि में उत्पन्न मनुष्य । कम्मभूमग-पांच भरत, पांच ऐरवत, पांच महाविदेह इन पन्द्रह कर्मभूमियों में उत्पन्न मनुष्य ।' अकम्मभूमग-हैमवत आदि अकर्मभूमियों में उत्पन्न यौगलिक मनुष्य ।' अंतरदीवग-छप्पन अन्तर्वीपों में उत्पन्न एकोरुक् [एक जङ्घावाले] आदि मनुष्य ।। पज्जत्तग-पर्याप्ति का अर्थ है-शक्ति या सामर्थ्य । वह पुद्गल द्रव्य के उपचय से होती है। विवक्षित भव में प्राप्त करने
___ योग्य समस्त पर्याप्तियों को पूर्ण करने पर जीव पर्याप्तक कहलाता है।' अप्पमत्तसंयत-जिसका आत्मा के प्रति सतत उपयोग (अवधानता या स्मृति) रहता है। उस संयती को अप्रमत्त कहा
जाता है। चूर्णिकार ने अप्रमत्त संयत की चार श्रेणियों का निर्देश किया है-१. जिनकल्पिक २. यथालन्दक ३. परिहारविशुद्धिक ४. प्रतिमाप्रतिपन्नक ।
ये चारों श्रेणियां गच्छमुक्त मुनि की हैं । मनःपर्यवज्ञान गच्छमुक्त मुनि को ही होता है, यह जरूरी नहीं है। इसलिए इस प्रश्न को ध्यान में रखकर चूर्णिकार ने विकल्प प्रस्तुत किया है। गच्छवासी और गच्छमुक्त दोनों श्रेणी के मुनि प्रमत्त और अप्रमत्त
१. भगवई, ८1१८३ २. नन्दी चूणि, पृ. २२ : सम्मुच्छिममणुस्सा गम्भवक्कंतियमणु
स्साण चेव वंत-पित्तादिसु संभवंति। ३. वही, पृ. २२ : कम्मभूमगा पंचसु भरहेसु पंचसु एरवदेसु
पंचसु महाविदेहेसु य। ४. वही, पृ. २२ : हेमवतादिसु मिधुणा ते अकर्मभूमगा। ५. वही, पृ. २२ : तिण्णि जोयणसते लवणजलमोगाहित्ता
चुल्लहिमवंतसिहरिपादपतिद्विता एगुरुगादि छप्पण्णं अंतरदीवगा। ६. वही, पृ. २२ : पज्जत्ती णाम-सत्ती सामत्थं । सा य
पुग्गलदव्वोवचया उप्पज्जति । .....""एताओ पज्जत्तीओ पज्जत्तयणामकम्मोदएणं णिव्यत्तिज्जंति, ता जेसि अत्थि ते पज्जत्तया।
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