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प्र०२, सू० १०-१६, टि० ८ से बाहर आती हैं । अवधिज्ञान के लिए कोई एक नियत प्रदेश या चैतन्य केन्द्र नहीं है । उसकी रश्मियों के बाहर आने के लिए शरीर के विभिन्न प्रदेश चैतन्यकेन्द्र या साधन बनते हैं। अंतगत अवधिज्ञान की रश्मियां शरीर के पर्यंतवर्ती (अग्र, पृष्ठ और पार्श्ववर्ती) चैतन्यकेन्द्रों के माध्यम से बाहर आती हैं । मध्यगत अवधिज्ञान की रश्मियां शरीर के मध्यवर्ती चैतन्य केन्द्रों-मस्तक आदि से बाहर निकलती हैं।
सूत्रकार ने अन्तगत और मध्यगत अवधिज्ञान का भेद स्वयं स्पष्ट किया है। उनके अनुसार एक दिशा में जानने वाला अवधिज्ञान अन्तगत अवधिज्ञान है और सब दिशाओं में जानने वाला अवधिज्ञान मध्यगत अवधिज्ञान है।
षट्खंडागम के एकक्षेत्र और अनेकक्षेत्र अवधिज्ञान की तुलना अंतगत और मध्यगत के साथ की जा सकती है। जिस अवधिज्ञान का करण जीव के शरीर का एक देश होता है वह एकक्षेत्र अवधिज्ञान है। जो अवधिज्ञान प्रतिनियत क्षेत्र की वर्जना कर शरीर के सब अवयवों में रहता है वह अनेकक्षेत्र अवधिज्ञान है। चूर्णिकार तथा वृत्तिकारों ने अन्तगत और मध्यगत के बीच भेदरेखा खींचने के लिए दो आधार प्रस्तुत किए हैंअंतगत
मध्यगत १. औदारिक शरीर के पर्यंतवर्ती आत्मप्रदेशों की
१. औदारिक शरीर के मध्यवर्ती आत्मप्रदेशों की विशुद्धि ।
विशुद्धि। २. सब आत्मप्रदेशों की विशुद्धि होने पर भी
२. सब आत्मप्रदेशों की विशुद्धि होने पर सब एक पर्यंत से होने वाला तथा एक दिशा को
दिशाओं को प्रकाशित करने वाला । प्रकाशित करने वाला।
दिगम्बर साहित्य में अवधिज्ञान के करणों का नामोल्लेख मिलता है। प्रस्तुत आगम या अन्य किसी आगम में उन करणों का नामोल्लेख नहीं है । इसी मान्यता के आधार पर पण्डित सुखलालजी ने एक समीक्षात्मक टिप्पणी लिखी है -
"अवधिज्ञान तथा मनःपर्यायज्ञान की उत्पत्ति के सम्बन्ध में गोम्मटसार का जो मन्तव्य है वह श्वेताम्बर-साहित्य में कहीं देखने में नहीं आया। वह मन्तव्य इस प्रकार है
____ अवधिज्ञान की उत्पत्ति आत्मा के उन्हीं प्रदेशों से होती है, जो कि शंख आदि शुभ-चिह्न वाले अङ्गों में वर्तमान होते हैं तथा मनःपर्याय ज्ञान की उत्पत्ति आत्मा के उन प्रदेशों से होती है जिनका सम्बन्ध द्रव्य मन के साथ है अर्थात् द्रव्य मन का स्थान हृदय ही है, इसलिए हृदय-भाग में स्थित आत्मा के प्रदेशों ही में मनःपर्याय ज्ञान का क्षयोपशम है; परंतु शंख आदि शुभ चिह्नों का सम्भव सभी अंगों में हो सकता है, इस कारण अवधिज्ञान के क्षयोपशम की योग्यता किसी खास अङ्ग में वर्तमान आत्मप्रदेशों में ही नहीं मानी जा सकती; यथा (जी० गा० ४४१)
सव्वंग अंगसंभवविण्हादुप्पज्जदे जहा ओहो ।
मणपज्जवं च दव्वमणादो उपज्जदे णियमा ॥" प्रस्तुत आगम में अन्तगत और मध्यगत ये दोनों चैतन्य केन्द्रों के गमक हैं। इनमें शंख आदि नामों का उल्लेख नहीं है। भगवती (८।१०३) में विभंगज्ञान के संस्थानों का उल्लेख किया गया है। उसमें अनेक संस्थानों के नाम उपलब्ध हैं, जैसे-वृषभ का
१. षट्खण्डागम, पुस्तक १३, पृ. २९४ : जस्स ओहिणाणस्स जीवसरीरस्स एगदेसो करणं होदि तमोहिणाणमेगक्खेत्तं णाम । जमोहिणाणं पडिणियदखेत्तं वज्जिय सरीरसव्वावय
वेसु वट्टदि तमणेयक्खेत्तं णाम । २. (क) नन्दी चूणि, पृ. १६ : जहा जलंतं वणंतं पव्वतंतं,
अविसिट्ठो अंतसद्दो। एवं ओरालियसरीरंते ठितं गतं ति एगळं, तं च आतप्पदेसफड्डगावहि, एगदिसोवसंभाओ य अंतगतमोधिण्णाणं भण्णति । अहवा सव्वातप्पदेसविसुद्धसु वि ओरालियसरीरेगतेण एगदिसिपासणगतं ति अंतगतं भण्णति । अहवा
फुडतरमत्यो भण्णति–एगदिसावधिउवलद्धखेत्तातो। सो अवधिपुरिसो अंतगतो ति जम्हा तम्हा अंतगतं भण्णति । मज्झगतं पुण ओरालियसरीरमज्झे फड्डगविसुद्धीतो सव्वातप्पदेसविसुद्धोतो वा सव्वदिसोवलंभत्तणतो मज्झगतो ति भण्णति । अहवाऽवधिउवलद्धखेत्तस्स वा अवधिपुरिसो मझगतो ति अतो वा
मज्झगतो भण्णति। (ख) हारिभद्रीया वृत्ति, पृ. २३ (ग) मलयगिरीया वृत्ति, प. ८४,८५ ३. कर्मग्रन्थ, भाग १, पृ. १११
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