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प्र०२, गा० २-६, टि० ११,१२
करे, तब परमावधि का उत्कृष्ट क्षेत्र बनता है । यह निरूपण परमावधि के सामर्थ्य की अपेक्षा से किया गया है ।"
सारे सूक्ष्म व बादर अग्निकायिक जीवों को तीन रचनाओं में स्थापित किया जा सकता है—घन, प्रतर और श्रेणी या सूची । प्रत्येक स्थापना के दो प्रकार हो सकते हैं
१. एक प्रदेश पर एक जीव को स्थापित करके ।
२. असंख्येय आकाश प्रदेशों पर एक-एक जीव को स्थापित करके ।
इस प्रकार से ये छह स्थापनाएं हो जाती हैं। एक आकाश प्रदेश पर एक जीव का अवगाहन नहीं हो सकता । अतः प्रथम विधि से स्थापित घन, प्रतर एवं श्रेणी आगमानुमोदित नहीं है । घन एवं प्रतर की अपेक्षा सूची रचना में बहुतर क्षेत्र का स्पर्श होता है अतः छठा विकल्प ही ग्राह्य है ।"
१२. ( गाथा ३ से ६)
प्रस्तुत चार गाथाओं में अवधिज्ञान के ज्ञेय का क्षेत्र और काल की तुलनात्मक दृष्टि से विचार किया गया है
श्वेताम्बर परम्परा'
दिगम्बर परम्परा'
क्षेत्रपरिमाण
अंगुल का असंख्यातवां
भाग
11
संख्यातवां भाग
एक अंगुल
अंगुल पृथक्त्व (२-९ . )
एक हाथ
गव्यूत
योजन
२५ योजन
भरतक्षेत्र
जम्बूद्वीप
मनुष्यलोक
समय अवधि
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गाथा ३-६
आवलिका का असंख्यातवां भाग आवलिका का संख्यातवां भाग
अन्तरावलिका
आवलिका
अन्तर्मुहूर्त
अन्तर्दिवस
दिवस पृथक्त्व
अन्त: पक्ष
अर्द्धमास
साधिक मास
एक वर्ष
वर्षपृथक्त्व
संख्यात काल
असंख्यातकाल
१. विशेषावश्यक भाष्य, गा. ६०३,६०४
२. वही, गा. ६०५
३. वही, गा. ६०१
४. वही, गा. ६०१ की वृत्ति ।
५. नवसुत्ताणि, नंदी, सू. १८१२-६
६. षट्खण्डागम, पुस्तक १३, पृ. ३०१-३२८
समय अवधि
आवलिका का असंख्यातवां
भाग आवलिका का संख्यातवां भाग अन्तरावलिका
आवलिका
आवलिका पृथक्त्व साधिक उच्छ्वास
अन्तर्मुहूर्त
अन्तर्दिवस
अर्धमास
साधिक मास
एक वर्ष
वक्त्य
संख्येय वर्ष
असंख्येय वर्ष
क्षेत्रपरिमाण
उत्सेधांगुल का असंख्यातवां
भाग
का संख्यातवां
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६१
भाग
अंगुलमात्र अंगुलपृथक्त्व
हस्तप्रमाण
१ गव्यूत
१ योजन
२५ योजन
भरतक्षेत्र
जम्बूद्वीप
मनुष्यक्षेत्र
रुचक द्वीप
संख्येय द्वीपसमुद्र
द्वीपसमुद्र असंख्यात या
संख्यात
क्षेत्र और काल दोनों अमूर्त है और अवधिज्ञान का विषय मूर्त (द्रव्य) है। इसका ऐदम्पर्यार्थ यह है कि अवधिज्ञान क्षेत्र में व्यवस्थित दर्शनयोग्य द्रव्यों और विवक्षित कालांतरवर्ती पर्यायों को जानता - देखता है। वह क्षेत्र और काल को जानता है । यह उपचार कृत प्रतिपादन है ।
रुचक द्वीप
संख्येय द्वीपसमुद्र असंख्येय द्वीपसमुद्र
७. (क) हारिमीया वृत्ति, पृ. २० क्षेत्र-कालदर्शनमुपचारे
णोच्यते, अन्यथा हि क्षेत्रव्यवस्थितानि दर्शनयोग्यानि द्रव्याणि तत्पर्यायांच विवक्षितकालान्तर्वर्तिनः
पश्यति ।
(ख) आवश्यकनिर्युक्ति, पृ. २१ (ग) मलयगिरीया वृत्ति, प. ९३
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