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प्र० १, गा० ४४, टि० २७
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होता है। ८. मशक दृष्टान्त
मच्छर काटकर व्यथा देता है। इसलिए मनुष्य वस्त्राञ्चल अथवा अन्य किसी साधन से उड़ा देता है । जो शिष्य व्याख्या परिषद् में बैठकर गुरु के जाति आदि का उद्घाटन कर व्यथा पैदा करता है। वह मच्छर के समान वाचना के अयोग्य होता है। ९. जलौका दुष्टान्त
जलौका शरीर से रक्त चूसती है पर मनुष्य को पीड़ा नहीं पहुंचाती। जो शिष्य गुरु को व्यथित किए बिना श्रुतज्ञान के रस का पान कर लेता है । वह अध्ययन के योग्य होता है।' १०. बिडाली दृष्टान्त
बिल्ली दूध को भूमि पर गिराकर पीती है । जो शिष्य वाचना परिषद से आए हुए साधु से सूत्रार्थ की जिज्ञासा करता है । सीधा गुरु से ज्ञान नहीं लेता, वाचना परिषद् में उपस्थित नहीं होता। वह बिडाली तुल्य होता है । अध्ययन के अयोग्य होता
११. जाहक दृष्टान्त---
जाहक-झाऊ चूहा-कांटों वाला चूहा दुग्धपात्र से थोड़ा दूध पीता है और पात्र के पार्श्व को चाट लेता है। फिर दूध पीता है और पात्र चाटता है । यह क्रम बराबर चलता है। बुद्धिमान शिष्य इसी प्रक्रिया से अध्ययन करता है। पहले जो पाठ पढा उसे चिरपरिचित करता है। इस प्रकार गुरु से पूर्ण श्रुत का ग्रहण कर लेता है और गुरु को कभी खिन्न नहीं करता। १२. गौ दृष्टान्त--
चार व्यक्तियों को दक्षिणा में गाय मिली। उन्होंने सोचा--गाय एक है और हम चार हैं। इसका बंटवारा कैसे करेंगे ? एक ने सुझाव दिया हम सब एक-एक दिन बारी से इस गाय का दोहन करे। यह बात चारों को जच गई। पहले दिन जिस ब्राह्मण को गौ मिली, उसने सोचा--आज तो गाग्न चारा-पानी लेकर आई है। कल इसका दूध मिलेगा दूसरे ब्राह्मण को अत: मैं इसे चारा क्यों डालं ?
उस ब्राह्मण ने गौ का दोहन किया, पर चारा नहीं डाला और न उसको सर्दी-गर्मी से बचाने की चिन्ता की। चारों ब्राह्मणों में ऐसे संक्रमण हो गया। उनके स्वार्थपरक और त्रुटिपूर्ण चितन के कारण गाय मर गई। जनता में उनका अवर्णवाद हुआ तथा उस गांव में उन्हें दक्षिणा मिलनी भी बंद हो गई। यह दृष्टान्त का नकारात्मक पहलू है।
इसका दूसरा पहलू सकारात्मक है । चार व्यक्तियों को दक्षिणा में गाय मिली। उन्होंने चिंतन किया कि चारा डालने से गाय पुष्ट होगी, सबको अच्छा दूध मिलेगा और हम सबका एक-दूसरे पर अनुग्रह बरसेगा। उन्हें गाय का दूध मिला और गांव में भी उनकी कीर्ति हुई।
१.(क) विशेषावश्यक भाष्य, गा. १४६९ :
अवि गोपयम्मि वि पिवे सुढिओ तणुयत्तणेण तुडस्स।
न करेइ कलुस तोयं मेसो एवं सुसीसो वि ॥ (ख) बृहत्कल्प भाष्य, गा. ३४९ (ग) मलयगिरीया वृत्ति, प. ५८ २. (क) विशेषावश्यक भाष्य, गा. १४७० :
मसउव्व तुदं जच्चाएहि निच्छुब्भए कुसीसो वि । (ख) बृहत्कल्प भाष्य, गा. ३५० (ग) मलयगिरीया वृत्ति, प. ५८ ३. (क) विशेषावश्यक भाष्य, गा. १४७० :
जलुगा व अदूमंतो पिबइ सुसीसो वि सुयनाणं । (ख) बृहत्कल्प भाष्य, गा. ३५०
(ग) मलयगिरीया वृत्ति, प. ५८ ४. (क) विशेषाश्यक भाष्य, गा० १४७१ :
छड्डेउं भूमीए खीरं जह पियइ दुट्ठमञ्जारी।
परिसुट्ठियाण पासे सिक्खइ एवं विणयभंसी ॥ (ख) बृहत्कल्प भाष्य, गा० ३५१ (ग) मलयगिरीया वृत्ति, प. ५८ ५. (क) विशेषावश्यक भाष्य, गा० १४७२ :
पाउ थोवं थोवं खीरं पासाइं जाहगो लिहइ ।
एमेव जियं काउं पुच्छइ मइमं न खेएइ ॥ (ख) बृहत्कल्पभाष्य, गा. ३५२ (ग) मलयगिरीया वृत्ति, प. ५८
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