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प्र० १, गा० ४४, टि० २७
का घड़ा देने की चेष्टा की। उसने सोचा घड़ा पकड़ लिया। पत्नी ने सोचा घड़ा छोड़ा नहीं। चितन की दूरी रही, घड़ा नीचे गिरा और फूट गया । अहीरन बोली--मैंने घड़ा पकड़ा ही नहीं, तुमने पहले ही छोड़ दिया। अहीर बोला-- तुमने ठीक से पकड़ा नहीं। पहले उनमें तूं तूं मैं मैं हुई, फिर कलह हो गया। अहीरन बोली--तुम्हारा ध्यान नगर की महिलाओं को देखने में लगा था, इसलिए तुमने घड़े को बीच में ही छोड़ दिया। अहीर बोला--तुम्हारा मन नगर के तरुण और रमणीय पुरुषों में लग गया इसलिए घड़ा छोड़ दिया। कलह आगे बढ़ा । अहीर गाड़ी से नीचे उतरकर उसको पीटने लगा। उस लड़ाई में कुछ घड़े भी गाड़ी से नीचे गिरे और फूट गए। दूसरे घी विक्रेताओं ने अपना घी बेच दिया। बचे हुए घड़ों को लेकर अहीर बाजार में गया । तब तक घी का मूल्य कम हो चुका था । सांझ भी हो गई । दूसरे घत विक्रेता पहले ही गांव चले गये थे। वह अकेला चला। उसके पास पैसा, बैल और गाड़ी थी, वह चोरों ने ले ली।
एक अहीर अपनी पत्नी के साथ घी बेचने गया । अहीर गाड़ी के ऊपर और अहीरन नीचे खड़ी थी। घी का घड़ा उठाया, अहीरन को देने लगा। घड़ा गिरा और फूट गया। अहीरन बोली-इसमें तुम्हारा कोई दोष नहीं, मेरी गलती है, मैंने घड़ा ठीक से पकड़ा नहीं । अहीर बोला -दोष तुम्हारा नहीं, दोष मेरा है। दोनों ने योजना बनाई। जहां घी ढुल गया, उस सारी बालू को उठाया, उठाकर घर में ले गए। उसे गर्भ जल में डाल तपाया। फिर नीचे उतार कर ठण्डा किया, जमा हुआ घी बर्तन से निकाल लिया। वे सारी समस्याओं से बच गए।
आचार्य पढ़ा रहे हैं । शिष्य पढ रहा है। आचार्य-इस आलापक का उच्चारण ठीक नहीं कर रहे हो। शिष्य---आपने ऐसे ही बताया था। आचार्य-मैंने ऐसा नहीं बताया । तुमने उसको अन्यथा कर दिया। शिष्य--आपने ऐसा ही बताया था। सत्य का अपलाप करना अच्छा नहीं। अब भी आप सावधानी पूर्वक पढाएं। इस प्रकार निष्ठुर वाणी में बोलने वाला, कलह करने वाला अध्ययन के लिए अयोग्य है। आचार्य पढ़ा रहे हैं । शिष्य पढ रहा है।। आचार्य---- इस आलापक का उच्चारण ठीक नहीं कर रहे हो। शिष्य---'मिच्छामि दुक्कडं', मेरी भूल हो गई, अब मैं सावधान रहूंगा। आचार्य हो सकता है, मैंने ही असावधानीवश ऐसा बता दिया हो । उन्होंने कहा--'मिच्छामि दुक्कडं।'
दोनों ओर अपने प्रमाद की स्वीकृति, न निष्ठर वाणी का प्रयोग और न कलह । इस प्रकार का मृदु व्यवहार करने वाला शिष्य अध्ययन के लिए योग्य है।
१. (क) विशेषावश्यक भाष्य, गा. १४८०, १४८२ (ख) बृहत्कल्प भाष्य, गा. ३६०,३६१ :
मुक्कं तया अगहिए, दुपरिग्गहियं तया कलहो। पिट्टणय इयर विक्किय, गएसु चोरेहि ऊणग्यो ।
मा निण्हव इय दाउं, उवजुजिय देहि कि विचितेसि ।
विच्चामेलणदाणे, किलिस्ससी तं च हं चेव ॥ (ग) मलयगिरीया वृत्ति, प. ६१ से ६३
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