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में भद्रवाह से संबंधित कई प्रसंग मिलते हैं। ऐसी अनुभूति है कि अवलिया भद्रवाह अंतिम महाप्राण ध्वनि की साधना की। उस साधना काल के दौरान संघ के अनुरोध को स्वीकार कर
की ।
भद्रबाहु श्रुतधर व आगम रचनाकार थे। छेद सूत्रों के रचनाकार भद्रबाहु ही माने जाते हैं । इस प्रकार भद्रबाहु का जीवन श्रुत, साधना और साहित्य की त्रिवेणी था । आचार्य भद्रबाहु संघ को श्रुत का अमूल्य अवदान देकर वी० नि० १७० में स्वर्गगामी बन गए। इनका अस्तित्वकाल वी० नि० ९४ से १७० तक का है ।
स्थूलभद्र
स्थूलभद्र श्वेताम्बर परम्परा के प्रभावी आचार्य थे। इनका जन्म ब्राह्मण परिवार में वी० नि० ११६ में हुआ। ये गोत्र से गोतम थे । श्रुतवली आचार्यों की परम्परा में इनका स्थान अंतिम है । स्थूलभद्र ने भद्रबाहु की सन्निधि में प्रतिपूर्ण नौ पूर्व पड़ लिए दो वस्तुओं से किञ्चित् न्यून दसवां पूर्व भी पढ़ लिया। भद्रबाहु और स्थूलभद्र नेपाल से प्रस्थान कर पाटलिपुत्र आ गए। स्थूलभद्र की सात बहिनें प्रव्रजित हुयी थी । वे आचार्य भद्रबाहु और अपने भाई स्थूलभद्र को वंदन करने गई । आचार्य भद्रबाहु उद्यान में ठहरे हुए थे। उन्होंने वंदन कर पूछा -भंते! हमारा ज्येष्ठ भ्राता कहां है ? भद्रबाहु ने कहा इसी देवकुल में परावर्तन-स्वाध्याय कर रहा है। बहिनें स्थूलभद्र को वंदना करने गई । स्थूलभद्र ने आती हुई बहिनों को देखा। उन्होंने अपनी ज्ञानलब्धि का प्रदर्शन करने के लिए सिंह का रूप बना लिया । साध्वियों ने सिंह को देखा । वे डरकर लौट आई और आचार्य से बोली- स्थूलभद्र को सिंह खा गया। भद्रबाहु बोले- वह सिंह नहीं, स्थूलभद्र
है ।
दूसरे दिन वाचना के समय स्थूलभद्र भद्रबाहु के सामने उपस्थित हुए। भद्रबाहु ने वाचना नहीं दी। स्थूलभद्र ने सोचा, क्या कारण है जिससे भद्रबाहु ने मुझे वाचना के योग्य नहीं माना। उन्होंने इस पर ध्यान केन्द्रित किया और जाना- - इसका कारण कल की घटना है। वे बोले-'मैं भविष्य में ऐसा नहीं करूंगा।' भद्रबाहु बोले तुम नहीं करोगे, पर दूसरे कर लेंगे। बहुत प्रार्थना करने पर बड़ी कठिनाई से वाचना देना स्वीकार किया। उन्होंने स्थूलभद्र से कहा – 'अवशिष्ट चार पूर्व तुम पढ़ो, पर दूसरों को अपनी वाचना नहीं दोगे ।'
स्थूलभद्र के बाद अंतिम चार पूर्व विच्छिन्न हो गए। दसवें पूर्व की अंतिम दो वस्तुएं भी विच्छिन्न हो गई। दस पूर्व की परम्परा उनके बाद भी चली ।'
१५. ( गाथा २५ )
आर्य महागिरि
नंदी
पूर्वी थे। उन्होंने १२ वर्ष तक उन्होंने स्थूलभद्र को वाचना प्रदान
आचार्य स्थूलभद्र के दो अंतेवासी स्वर
आर्य महानिरि और जायें सुहस्ती कार्य महानिरि का गोत्र ऐनापत्य था।' आपका जन्म वी० नि० १४५ में हुआ । आपकी गृहस्थ पर्याय ३० वर्ष, सामान्य व्रत पर्याय ४० वर्ष तथा आचार्यकाल ३० वर्ष था । आप दो वस्तु कम १० पूर्वी के ज्ञाता थे। कल्पसूत्र स्थविरावलि, परिशिष्टपर्व तथा अन्य पट्टावलियों में आचार्य स्थूलभद्र के उत्तराधिकारी के रूप में महागिरि और सुहस्ती दोनों नाम समान रूप से उपलब्ध होते हैं। परिशिष्ट पर्व के अनुसार आर्य महागिरि ने अपना गच्छ सुहस्ती को संभलाकर उच्छिन्न जिनकल्प का श्रमणाचार पालन करना प्रारम्भ किया। आपने अनेक शिष्यों को आगम वाचना देकर बहुश्रुत बनाया। अंत में अनशनपूर्वक स्वर्गगमन किया। आपका अस्तित्व काल वी० नि० १४५ से २४५ है ।
आर्य सुहस्ती
१. आवश्यक चूणि, २ पृ. १८७,१८८ २. नवता
गाथा २५
आर्य स्थूलभद्र के अंतेवासी आर्य सुहस्ती जन्मना वाशिष्ठ गोत्रीय थे। आपका जन्म वी० नि० १९१ में हुआ । आपने २३ वर्ष की अवस्था में आर्य स्थूलभद्र के करकमलों से दीक्षा ग्रहण की। आप भी दो वस्तु कम १० पूर्वी के ज्ञाता थे। एक बार आर्य सुहस्ती को अपने राजप्रासाद के आंगन में देख मौर्य सम्राट सम्प्रति को जातिस्मरण ज्ञान हो गया । अपने पूर्वभव को जानकर उसमें प्रगाढ धर्मातुराग का उदय हुआ। जैन इतिहास में सम्राट सम्पति का वही स्थान है जो बौद्ध इतिहास में उसके दादा सम्राट अशोक
३. परिशिष्ट पर्व, सर्ग ११
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पोता . १८७,१९२
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