________________
१८
जम्बू -
महावीर की परम्परा में दूसरे युगप्रधान हैं— जम्बू । सुधर्मा के प्रधान शिष्य जम्बू अंतिम केवलज्ञानी के रूप में प्रसिद्ध हैं । जम्बू का जन्म वी०नि०पू० १६ ( वि० पू० ४५६ ) में राजगृह निवासी वैश्य परिवार में हुआ। जम्बू के पिता का नाम ऋषभदत्त और माता का नाम धारिणी था ।
आचार्य सुधर्मा के द्वारा श्रेष्ठीकुमार जम्बू ने ५२७ व्यक्तियों के साथ वी० नि० १ वि० पू० ४६९ में राजगृह के गुणशील चैत्य में मुनि दीक्षा ग्रहण की।
आचार्य सुधर्मा ने जम्बू को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया। उस समय जम्बू की अवस्था ३६ वर्ष की थी।
आगम की अधिकांश रचना जम्बू के प्रिय संबोधन से प्रारम्भ हुई । "जम्बू ! सर्वज्ञ श्री भगवान् महावीर से मैंने ऐसा सुना है ।"" आचार्य सुधर्मा का यह वाक्य आगम साहित्य में विश्रुत है ।
आचार्य 'जम्बू सोलह वर्ष तक गृहस्थ जीवन में रहे। मुनि पर्याय के कुल ६४ वर्ष में ४४ वर्ष तक उन्होंने युगप्रधान पद को अलंकृत किया । उनकी संपूर्ण आयु ८० वर्ष की थी । वी० नि० ६४ (वि० पू० ४०६ ) में उन्होंने निर्वाण प्राप्त किया । दिगदर पट्टावली में जंदूस्वामी के उत्तराधिकारी के रूप में विष्णुनंदी को मानते हैं।
प्रभव
नंदी
महात्रीर की परम्परा में तीसरे युगप्रधान हैं- प्रभव । जंबू के शासन का उत्तराधिकार प्रभव को प्राप्त हुआ । कात्यायन उनका गोत्र था ।
विन्ध्य नरेश के दो पुत्र थे। प्रभव उनमें ज्येष्ठ था । ज्येष्ठ पुत्र होने के कारण राज्य पाने का वह अधिकारी था। किसी कारणवश विन्ध्य नरेश द्वारा राज्य का उत्तराधिकारी कनिष्ठ पुत्र को बना दिया गया। इस घटना से प्रभव विद्रोही बन गया और चोरों की पल्ली में आ पहुंचा। वह ५०० चोरों का नेता बन गया। अवस्वापिनी और तालोद्घाटिनी नामक दो विद्याएं उसके पास थी।
एक बार प्रभव का दल मगध की सीमा में पहुंच गया। जम्बू के विवाह में प्राप्त ९९ करोड़ के दहेज की जानकारी प्राप्त कर प्रभव ने सोचा- एक ही दिन में धनाढ्य बनने का यह सुन्दर अवसर है। अपनी विद्याओं का प्रयोग किया। स्तेनदल ने अत्यंत त्वरा से काम किया, धन की गांठें बांधी। गांठों को उठाने को तत्पर उनके हाथ गांठों पर और पैर धरती पर चिपक गए। सबके सब स्तंभित रह गए।
प्रभव ने सोचा, किसी ने अवश्य मेरे स्तेनदल पर स्तम्भिनी विद्या का प्रयोग किया है। प्रभव ने जम्बू के शयन कक्ष की ओर देखा । वह तो अपनी पत्नियों को वैराग्य की ओर अग्रसर कर रहा था। जम्बू ने प्रभव को प्रतिबोधित किया ।
प्रभव ने अपने पूरे दल सहित वी०नि० १ (वि०पू० ४६९) में सुधर्मा के पास दीक्षा ग्रहण की। आचार्य जंबू के बाद वी० नि० ६४ (वि०पू० ४०६ ) में प्रभव ने आचार्य पद का दायित्व संभाला ।
आचार्य प्रभव ३० वर्ष तक गृहस्थ जीवन में रहे। दायित्व वहन किया । चारित्रधर्म की आराधना करते हुए अनशनपूर्वक स्वर्गगामी बने ।
संयमी जीवन के कुल ७५ वर्ष के काल में ११ वर्ष तक आचार्य पद का १०५ वर्ष का आयुष्य पूर्ण कर वी०नि० ७५ (वि०पू० ३९५ ) में वे
आचार्य शय्यम्भव -
भगवान् महावीर की परम्परा में चतुर्थ युगप्रधान हैं-शय्यम्भव । आचार्य शय्यम्भव का जन्म ब्राह्मण परिवार में हुआ । उनका गोत्र वत्स था । राजगृह उनकी जन्मभूमि थी । आचार्य शय्यम्भव को प्रभव से ही जैन धर्म का बोध प्राप्त हुआ। तदनन्तर शय्यम्भव ने उनसे मुनि दीक्षा ग्रहण की। वे वैदिक दर्शन के प्रकाण्ड विद्वान् थे। आचार्य प्रभव के पास उन्होंने १४ पूर्वो का ज्ञान प्राप्त किया और श्रुतधर की परम्परा में वे द्वितीय श्रुतकेवली बने । आचार्य प्रभव ने वी० नि० ७५ में उन्हें आचार्य पद प्रदान
किया ।
१.
१८३
२. (क) आयारो, ११ : सुयं मे आउ ! तेगं भगवया एवमवायें।
(ख) आचारांगसूत्र भूमि, पृ. २९० असुमो जम्बुस्वामि पुच्छ भगति महामुतं यदस्सामि ।
Jain Education International
३. पट्टावली समुच्चय (श्री गुरुपट्टावली), पृ. १६३ तत्पट्टे श्रीजम्बूस्वामी " षोडश वर्षाणि गृहे, विशति वर्षाणि व्रते चतुरचत्वारिंशत् वर्षाणि प्रधानमासीत वर्षाणि प्रणाल्प भी वीराः सिद्धः ।
४. वीर शासन के प्रभावक आचार्य,
For Private & Personal Use Only
पृ. १३
www.jainelibrary.org