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नंदी
चूणिकार ने क्षुब्धता के दो हेतु बतलाए हैं१. परप्रवाद अन्य दार्शनिकों का विचार । २. उपसर्ग ।
गाथा १२ रूढ-बद्धमूल । गाढ-तीव्र तत्त्वरुचिसम्पन्न । अवगाढ–जीव आदि पदार्थों में अत्यन्त निमज्जन करनेवाला । मेखला-पर्वत का मध्यभाग ।
गाथा १३
उज्जल-उज्ज्वल-उज्ज्वलता का कारण है कर्ममल की विशुद्धधमानता । उसिय--उच्छृत-ऊंचाई का कारण है अशुभ अध्यवसाय का परित्याग । जलंत-ज्वलन्त-ज्वलन्त होने का कारण है सूत्र और अर्थ का निरन्तर अनुस्मरण । चित्त-जिससे जाना जाता है, चिन्तन किया जाता है वह चित्त है।' उद्धमाय-व्याप्त ।
गाथा १४ कन्दरा-दर्रा [दो चट्टानों अथवा पहाड़ों के बीच का मार्ग]' । दित्त--ज्ञान आदि रत्नों से दीप्त, श्वेलौषधि आदि लब्धि रूपी औषधियों से दीप्त ।
गाथा १५ संवर--प्रत्याख्यान-संवर के साथ नियमत: निर्जरा होती है इस अपेक्षा से संवर की जल से तुलना की गई है। हरिभद्रसूरि का यह मत है। मलयगिरि ने संवर की जल के साथ तुलना के तीन हेतु बतलाए हैं:
१. कर्ममल का प्रक्षालन । २. सांसारिक प्यास को बुझानेवाला । ३. परिणाम सुन्दर । उझर-पर्वत के अग्रभाग से झरनेवाला जलप्रवाह । चूर्णिकार ने बतलाया है कि क्षायोपशमिक जल की निर्मल धारा संघ में निरन्तर प्रवहमान होती है। पउर-रवंत-प्रचुर रव का उल्लेख स्तोत्र, स्तुति, गीत आदि की अपेक्षा से किया गया है।" कुहर–पर्वत की तलहटी का वृक्षों से आकुल समतल प्रदेश । मण्डप की तुलना कुहर से की गई है।
गाथा १६ चणिकार ने 'विणयमय' पाठ की व्याख्या की है तथा 'कुसुमाउलवणस्स' पाठ की व्याख्या स्वीकार की है। १. नन्दी चूणि, पृ. ४ : परप्रवादोपसर्गादिभिर्न क्षुभ्यते ।
६. नन्दी चूणि, पृ. ६ : खाइगभावातो खयोवसमियं उज्झरं, २. (क) वही, पृ. ५ : चितिज्जइ जेण तं चित्तं ।
ततो पलंबिता खतोवसमितसंवरदगधारा। (ख) हारिभद्रीया वृत्ति, पृ.८
७. (क) वही, पृ. ६ : पउरो त्ति-बहू प्रचुरः सो य गीत३. अभिधानचिन्तामणि, ४।९९ : दरा स्यात्कन्दरो।
द्धणीए रवति त्ति-रडती। ४. (क) नन्दी चूणि, पृ. ६ : संवरो त्ति पच्चक्खाणं ।
(ख) हारिभद्रीया वृत्ति, पृ. ९ (ख) हारिभद्रीया वृत्ति, पृ.९ ।
(ग) मलयगिरीया वृत्ति, प. ४७ ५. मलयगिरीया वृत्ति, प. ४७ : कर्ममलप्रक्षालनात् सांसारिक- ८. नन्दी चूणि, पृ. ६ : विणयकरणत्तातो विणयमतो मुणी।
तृडपनोदकारित्वात परिणामसुन्दरत्वाच्च वरजलमिव ९. वही, पृ.६ संवरवरजलम् ।
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