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नंदी
गाथा २८,२९,३० १८. गाथा (२८,२६,३०)
प्रस्तुत स्थविरावलि के अनुसार आर्य मंगु के पश्चात् आर्य नन्दिल और आर्य नन्दिल के पश्चात् आर्य नागहस्ती का उल्लेख हुआ है। दिगम्बर स्थविरावलि में आर्य मक्ष और नागहस्ती-इन दोनों का महावाचक के रूप में उल्लेख हुआ है। कषायपाहुड की प्रस्तावना में संपादक गण ने इस पर विमर्श किया है।
जयधवला में लिखा है कि गुणधराचार्य के द्वारा रची गई गाथाएं आचार्य परंपरा से आकर आर्य मंक्षु और नागहस्ती आचार्यों को प्राप्त हुई। इन दोनों आचार्यों के मतों का उल्लेख जयधवला में अनेक जगह आता है। ऐसा प्रतीत होता है कि जयधवलाकार के सामने इन दोनों आचार्यों की कोई कृति मौजुद थी या उन्हें गुरु-परंपरा से इन दोनों आचार्यों के मत प्राप्त हुए थे। क्योंकि ऐसा हुए बिना निश्चित रीति से अमुक-अमुक विषयों पर दोनों के जुदे जुदे मतों का इस प्रकार उल्लेख करना संभव प्रतीत नहीं होता। इन दोनों में आर्य मंक्षु जेठे मा लुम होते हैं क्योंकि सब जगह उन्हीं का पहले उल्लेख किया गया है। किंतु जेठे होने पर भी आर्य मंक्षु के उपदेश को अपवाइज्जमाण और नागहस्ती के उपदेश को पवाइज्जमाण कहा है। जो उपदेश सर्वाचार्यसम्मत होता है और चिरकाल से अविच्छिन्न संप्रदाय के क्रम में चला आता हुआ शिष्यपरंपरा के द्वारा लाया जाता है वह पवाइज्जमाण कहा जाता है । अर्थात् आर्य मंक्षु का उपदेश सर्वाचार्यसम्मत और अविच्छिन्न संप्रदाय के क्रम से आया हुआ नहीं था। किंतु नागहस्ती आचार्य का उपदेश सर्वाचार्यसम्मत और अविच्छिन्न संप्रदाय के क्रम से चला आया हुआ था।
नंदीसूत्र में आर्य मंगु के पश्चात् आर्य नंदिल का स्मरण किया गया है और उसके पश्चात् नागहस्ती का। नंदीसूत्र की चूणि तथा हारिभद्रीया वृत्ति में भी यही क्रम पाया जाता है। दोनों में आर्य मंगु का शिष्य आर्य नंदिल और आर्य नंदिल का शिष्य नागहस्ती को बतलाया है । इससे आर्य मंगु के प्रशिष्य आर्य नागहस्ति थे ऐसा प्रमाणित होता है तथा नागहस्ति को कर्मप्रकृति में प्रधान बतलाया गया है और उनके वाचक वंश की वृद्धि की कामना की गई है। कुछ श्वेताम्बरीय ग्रंथों में आर्य मंगु की एक कथा भी मिलती है जिसमें लिखा है कि वे मथुरा में जाकर भ्रष्ट हो गये थे। नागहस्ती को वाचक वंश का प्रस्थापक भी बतलाया है इससे स्पष्ट है कि वे वाचक जरूर थे तभी तो उनकी शिष्य-परंपरा वाचक कहलाई। इन सब बातों पर दृष्टि देने से ऐसा प्रतीत होता है कि श्वेताम्बर परंपरा के आर्य मंगु और नागहस्ती तथा धवला और जयधवला के महावाचक आर्य मंक्षु और महावाचक नागहस्ती संभवतः एक ही हैं।
उस समय श्वेताम्बर और दिगंबर जैसा कोई स्पष्ट भेद नही था इसलिए नंदी की स्थविरावलि व जयधवला में उनका उल्लेख होना कोई आश्चर्य की बात नहीं है।
इस संदर्भ में २८वीं और ३०वीं गाथा का अध्ययन करना समुचित होगा। भणग, करक, झरक, प्रभावक, श्रुतसागर के पारगामी-ये विशेषण आर्य मंग के महावाचक होने का साक्ष्य दे रहे हैं। इसीलिए जयधवलाकार ने अनेक बार उनका उल्लेख किया है । जयधवला के अनुसार नागहस्ती को व्याकरण करण भङ्गरचना और कर्म प्रकृति प्रधान विशेषण से विशेषित किया गया है । चूर्णिसूत्र के कर्ता यतिवृषभ आर्य मंक्षु और नागहस्ती के शिष्य रहे हैं। इस उल्लेख से स्पष्ट है कि नागहस्ती कर्म प्रकृति के मर्मज्ञ आचार्य थे । नागहस्ती से वाचक वंश की वृद्धि हुई अथवा वे वाचक वंश के प्रवर्तक थे यह अनुमान किया जा सकता है।
कुछ प्रतियों में आर्य मंगु के पश्चात् चार युगप्रधानों के नाम वाली दो गाथाएं मिलती हैं। उसके पश्चात् आर्य नन्दिल का नाम है । इस विषय में कल्याणविजयजी का अभिमत उल्लेखनीय है-आर्य मंगु और आर्य नन्दिल के बीच चार आचार्य और हो गए हैं । उनके मतानुसार नन्दीसूत्र की पट्टावली में आर्य मंगु और आर्य नन्दिल के बीच में होने वाले उन चार आचार्यों से संबंधित दो गाथाएं छूट गई हैं जो अन्यत्र उपलब्ध होती हैं।
मुनि दर्शनविजयजी ने आर्यरक्षित के बाद नन्दिल क्षमण का उल्लेख किया है । कल्पसूत्र की पट्टावली में 'नन्दिय' नाम मिलता है।
"आर्य मंगु का युगप्रधानत्व वीर निर्वाण सम्वत् ४५१ से ४७० तक था । परन्तु आर्य नन्दिल का समय आर्यमंगु से बहुत पीछे का है क्योंकि वे आर्यरक्षित के पश्चात्भावी स्थविर थे और आर्यरक्षित का स्वर्गवास वीर नि० सम्वत् ५९७ में हुआ था। इसलिए आर्यनन्दिल ५९७ के पीछे स्थविर हो सकते हैं। इस प्रकार मूनिजी की कालगणना के अनुसार आर्यमंगु और आर्यनन्दिल के बीच में १२७ वर्ष का अन्तर रहता है। और उसमें आर्य नन्दिल का समय और जोड़ देने पर आर्यमंगु और नागहस्ति के बीच में १. कषाय पाहुड, पृ. ४३
३. पट्टावली-समुच्चय, कल्पसूत्र की स्थविरावली गाथा १० २. आर्हत् आगमों नु अवलोकन, पृ. ४६
पृ० १०
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